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लघुकथाएँ - संचयन - मुकेश वर्मा
प्रति–दिन अक्सर
कभी समझ में नहीं आया कि मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है कि मैं अपनी रौ में कुछ अलग तरीके से सोचता रह जाता हूँ और घटनाएँ अलग तरह से घटती रहती हैं। अब कल का ही किस्सा लें। शराब की बोतल देखकर मेरे तन–बदन में आग लग गई।
वह भला आदमी अपने बेटे की नौकरी के लिए मेरे पास आया था। काम कर रहा था। जैसा कि पहले कहा और अब भी कर रहा हूँ कि आदमी भला था। कई साल उसने मेरी मातहती में काम किया। काम भी अच्छा था। स्वभाव भी अच्छा। एकदम आज्ञाकारी और विनीत। शिकायत का कोई मौका नहीं दिया। जब–डाँट पिलाई, पूँछ दबाए चुपचाप सुनता रहा और घबड़ाकर बाहर भागा।
अपने लड़के को लेकर घर आया था। छुट्टी का दिन था। काम भी नहीं था। वह अपनी विपदाओं का रोना रोता रहा और मैं सुनता रहा। उसका लड़का जरूरत से ज्यादा तेज लगा, विशेषकर उसके चेहरे पर रह रहकर आता अवज्ञा और हिकारत का भाव। कुछ जमा नहीं, बल्कि चिढ़ ही हुई। फिर भी ठीक था, कम से कम फुरसत का समय तो कट रहा था।
लेकिन जब उसने बगल में अखबारी में लिपटी शराब की बोतल मेरे करीब रख दी, उस वक्त मेरा दिमाग भन्ना गया। मन हुआ कि कुर्सी से सिर टिकाते हुए जोर से चुटकी बजाऊँ।
और कहूँ कि यह क्या बेवकूफी है? नानसेंस् भी, कहूँ। लेकिन आदमी भला था। उसके बदतमीज बेटे को देखूँ और कहूँ कि जरा बाहर जाओ, तुम्हारे बाप से जरूरी बात करती है। यह लड़का जरूर चल देगा, बैठा ही था कुछ इस अंदाज से। उसके जाने के बाद कुर्सी पर कुछ तिरछे झुकते हुए कहूँ कि गौड़, तुम तो समझदार आदमी हो। शराब की एक बोतल से क्या मुझे खरीदने आए हो? यह तरीका है क्या? मैं उसूलों का आदमी हूँ। जिंदगी भर अफसरी अपने दम पर की, कभी किसी शराब–कबाब के चक्कर में नहीं रहा। मौज भी की तो अपने पैसों से। उठाओ और रास्ता नापो। फिर कभी ऐसी हिम्मत मत करना, लेकिन हाँ तुम्हारा लड़का लायक पाया गया तो जरूर नौकरी दिला दूँगा। तब प्रसाद का एक पेड़ा लाना। समझे, गधे कहीं के।
मैं सोच रहा था कि उस वक्त भले आदमी का चेहरा कैसा हो जाएगा और यह बददिमाग लड़का तो पानी–पानी हो जाएगा। तब तक गौड़ बाबू अपने बड़े लड़के की मक्कारी का किस्सा लगभग बयान कर चुका था, जो नौकरी और शादी के बाद घर से अलग हो गया। मैंने धीरे से कागज का रैपर थोड़ा–सा खोला। काले चिकने शीशे में वह कसमसा रही थी। पंसद आया। गौड़ बाबू कितना हरामी हैं, आज भी उसे मेरी पसंद बखूबी याद है। मुझे और भी बहुत कुछ याद आया। मैं सोचता रहा।
न जाने ऐसा कब तक रहा। अकस्मात् देखा। गौड़ बाबू हाथ जोड़ रहा था।
 
 
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