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लघुकथाएँ - संचयन - ऋता शेखर ‘मधु’
प्रथम स्वेटर
बात उन दिनों की है जब मैं विद्यालय में पढ़ती थी| हमलोग सरकारी क्वार्टर में रहते थे|
हमारा घर मेन रोड के किनारे था| मेरे घर से कुछ दूरी पर सैनिक छावनी थी|
प्रतिदिन सवेरे सवेरे राइफ़ल से गोलियाँ चलने की आवाज़ें आती थीं| उसके बाद सारे सैनिक ऊँचे-ऊँचे घोड़ों पर सवार होकर एक कतार में मेन रोड से निकलते थे| उन्हें देखने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाती थी और तबतक देखती रहती थी जबतक अन्तिम सैनिक न चले जाएँ|
उन्हीं दिनों उन्नीस सौ इकहत्तर में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया था| सैनिक छावनी से भी सैनिकों को मोर्चे पर जाना था| एक दिन हमलोग विद्यालय में ही थे तभी प्रचार्या महोदया की ओर से संदेश आया कि सभी छात्राओं को मोर्चे पर जाने वाले सैनिकों को विदाई देनी है| हम सब, शिक्षक एवं शिक्षिकाओं सहित स्कूल की छत पर चले गए| उधर से सैनिकों से भरी छह या सात खुली बसें गुजरीं| हमने हाथ हिला हिला कर उनका अभिवादन किया|बस में से सैनिकों ने भी उत्साहपूर्वक शोर मचाते हुए अभिवादन स्वीकार किया| हम सभी की आँखें नम थीं क्योंकि इनमें से कितने लौट कर आने वाले थे, यह किसी को पता नहीं था|
एक सप्ताह के बाद यह ख़बर आई कि सैनिकों के लिए मोर्चे पर भेजने के लिए स्वेटर,
अचार या उपयोग की अन्य वस्तुएँ स्कूल में जमा करनी थीं| मैं ने घर आकर अपनी दादी से अचार बनाने को कहा| स्वेटर मैं ख़ुद बुनना चाहती थी किन्तु उस समय मुझे स्वेटर बुनना नहीं आता था|फिर भी ज़िद करके मैंने ऊन मँगवाया और दिन रात एक करके स्वेटर बुनने लगी| देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत मैंने स्वेटर तैयार कर ही लिया| यह बात मुझमें बहुत रोमांच पैदा कर रही थी कि मैं उनके लिए कुछ कर रही हूँ जो हमारे लिए कड़ाके की ठंढ में मोर्चे पर डटे हैं| आज भी मैं बुनती हूँ तो उस प्रथम स्वेटर को अवश्य याद करती हूँ|
 
 
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