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लघुकथाएँ - संचयन - हरि मृदुल
टाई
‘क्या यह वही टाई है, जिसे बचपन में खुद अपने हाथों से पहनाया करती थी?’ माँ जैसे बुदबुदा रही है। अपने आप से पूछे गए इस सवाल का जवाब उनके पास नहीं है। उन्होंने बड़ी प्रश्राकुलता से मेरी ओर देखा है।
इधर माँ में यह बड़ा परिवर्तन आया है। जब भी मैं ऑफिस से घर पहुँचता हूँ, वे इसी मुद्रा में दिखाई देती हैं।
रात के बारह बजने को हैं। सुबह आठ बजे घर से निकला मैं अब घर पहुँचा हूँ।
बीवी सो चुकी है और बच्चे भी। दरवाजा हमेशा की तरह माँ ने ही खोला है। इस बीच पिता खाँसे हैं।
जब से प्रमोशन हुआ है, इसी तरह देर हो जाती है। जूनियर मैनेजर से मैनेजर और फिर मैनेजर से सीनियर मैनेजर। कार। मोटी तनख्वाह। यह दूरी मैंने सिर्फ दो साल में तय की है।
बड़ी मेहनत और मगज़मारी का काम है। नए तरह का बाज़ार है और नई तरह की आपाधापी। एक लंबी रेस। जोर की साँस लेने के लिए भी क्षण भर को रुके, तो पिछड़ जाने का पूरा खतरा।
हँसना भूल गया हूँ, हँसने की इच्छा नहीं होती। रोना भूल गया हूँ, अलबžत्ता रोने की इच्छा होती है।
रातों में नींद नहीं आती। अचानक पसीना छलछला पड़ता है। नर्वस ब्रेक डाउन हो जाता है। कई बार डिप्रेशन में जा चुका हूँ।
बाल उडऩे लगे हैं। चर्बी चढ़ऩे लगी है। आँखों के नीचे काली झाईं आ चुकी है। ठोड़ी डबल हो चुकी है। यह बदलाव भी दो साल के भीतर ही आया है।
माँ सामने है। माँ की नजर मेरे चेहरे पर है। मैं नजरें चुरा रहा हूँ।
माँ ने ठीक बचपन की तरह मेरे सिर पर हाथ फिराया है और हथेली को कंघे की शक्ल देकर बिखरे बालों को व्यवस्थित किया है। इसके बाद टाई खोलनी शुरू कर दी है, बचपन की तरह।
मैंने मुस्कुराते हुए माँ के हाथ से टाई ली है और उसे तह कर ऑफिस के ब्रीफकेस में रख दिया है।
माँ आहिस्ता-आहिस्ता मेरे गले पर हाथ फेर रही है, जैसे उन्हें निशान दिख रहे हों।
‘कब छूटेगी यह टाई,’ माँ जैसे फुसफुसा रही है।
‘टाई छूटी, तो नौकरी छूटी, ’ मैंने बेहद थकी मुस्कान मुस्कुरा दी है।
शायद माँ ने मेरी बात सुनी नहीं। उसने एक बार फिर अपने आप से सवाल किया है, ‘क्या यह वही टाई है, जिसे बचपन में खुद अपने हाथों से पहनाया करती थी?’
 
 
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