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लघुकथाएँ - संचयन - सूर्यकांत नागर
प्रदूषण
मगर की तरह मुँह फाड़े पुराने जूतों को सड़क किनारे बैठे मोची से सिलवाने के लिए उस दिन मैं मजबूर हो गया। खड़खडि़या साइकिल को सड़क किनारे टिकाकर, मैंने जूते मोची को सुपुर्द कर दिए तथा एक ओर खड़ा हो गया। वह मार्ग, कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय को जाता था। तेरह से सोलह–सत्रह वर्ष की लड़कियों के झुंड एक के बाद एक बतियाते हुए वहाँ से गुजर रहे थे। फैशन परेड की भांति गुजरते समूहों में से लड़कियों के कुछ वाक्य बीच–बीच में मेरे कानों तक पहुँच रहे थे।
‘‘महाचोर देखी?’’
‘‘हाँ, पर राजेश खन्ना में अ बवह बात नहीं।’’
‘‘कागज की नाव देखी?’’
‘‘डैडी–मम्मी ले ही नहीं गए। कहते हैं, ‘ए’ सर्टिफिकेट वाली है।’’
‘‘किसी दिन स्कूल से तड़ी मारकर चलें।’’
‘‘अरे हट! । रीजेंसी में सिनेमा वाले स्ट्रिक हैं।’’
‘‘सुना है, आजकल चिंतू और नीतू के बीच कुछ पक रहा है।’’
‘‘अरे! ये तो जोड़ी बनाने के फिल्मी नुस्खे हैं।’’
‘‘अपना वह नया शिंदे सर कितना इतराता है!’’
‘‘छींट का बुशर्ट पहन स्वयं को छोटी–सी बात की हीरो समझता है।’’
‘‘मुझे तो बहुत प्यारा लगता है, बिलकुल अमोल पालेकर जैसा!’’
मैं लड़कियों के इस अंतिम समूह को देखता रह जाता हूँ। इस बीच मोची ने जूते सीकर मेरे सामने रख दिए हैं। फिर भी मेरी तंद्रा नहीं टूटती। आखिर वह बोल पड़ता है, ‘‘का छोकरिअन में रम गए बाबू?’’
उसे क्या जवाब देता! क्या यह कहता कि लड़कियों के उस अंतिम समूह का वह अंतिम वाक्य मेरी बेटी का था।
 
 
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