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लघुकथाएँ - संचयन - सूर्यकांत नागर
असलियत
इस बार उस छोटे–कस्बे में खुले नए होटल में जाकर ठहरा। वहाँ का शांत और शालीन वातावरण देख प्रसन्न हुआ। इतने अधिक यात्री होने के बावजूद न व्यर्थ का हो–हल्ला, नल गुंडागर्दी! रात्रि के समय प्रबंधक को फुरसत में पाकर इसका कारण पूछा। उसने बताया, ‘‘होटल से ही लगा हुआ पुलिस थाना है। इसलिए गलत और गुंडे किस्म के लोग यहाँ आकर ठहरने से डरते हैं।’’ सुनकर संतोष हुआ।
कोई छ: माह बाद फिर उसी होटल में रुकने का काम पड़ा। पर इस बार वहाँ का सन्नाटा देख चकित रह गया। पूरे होटल में मुश्किल से चार–छह यात्री थे। मैंने प्रबंधक से इसका कारण पूछा। दुखी स्वर में उसने बताया, ‘‘अब कोई भला आदमी यहाँ आकर ठहरना नहीं चाहता।’’
‘‘कारण?’’ मैंने आश्चर्य से पूछा।
‘‘कारण तो वही है–पुलिस थाना!’’ बुझे स्वर में प्रबंधक ने बताया।
 
 
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