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लघुकथाएँ - संचयन - सूर्यकांत नागर
पालनहार
यात्रियों से खचाखच भरी बस पूरे वेग से राजधानी की ओर दौड़ रही थी।
अगले स्टॉप पर दो मानवीय विधायक बस में चढ़े और विधायक सीट पर बैठे एक ग्रामीण वृद्ध दंपिा को सीट खाली कर देने के लिए कहा। इस तरह का आदेश वृद्ध और उसकी पत्नी की समझ से परे था। वे हुज्जत करने लगे। काफी गर्मागर्मी ही गई। तभी कंडक्टर ने आकर दंपिा को डराया–धमकाया और सीट खाली करवाकर विधायक द्वय को उस पर आसीन कराया। वृद्ध खड़ा हो गया और बूढ़ी खांसती हुई फर्श पर बैठ गई। कुछ देर बाद थककर बूढ़े ने अपनी कमर सीट से टिका दी तो एक विधायक ने कहा, ‘‘बाबा, सीधे खड़े रहो। तुम्हारे कपड़ों से बदबू आ रही है।’’
बूढ़ा सीधा हो गया।
राजधानी अब दूर नहीं थी।
‘‘भई, बंधुआ मजदूरों और झुग्गी–झोंपड़ी वालों से संबंधित तुम्हारे उस विधेयक का क्या हुआ?’’ एक विधायक ने गालों पर फैल आई पान की पीक पोंछते हुए पूछा।
‘‘इसी सत्र में पेश हो रहा है। देखना, जमकर बहस होगी।’’ दूसरे विधायक ने प्रसन्न होकर कहा।
‘‘फिर तो भोत मजा आएगा।’’ पहले ने कहा और जोर का ठहाका लगाया। लगा, जैसे पूरी बस हिल उठी है। एक क्षण को ऐसा आभास हुआ कि बस एक झटके के साथ रूक जाएगी। पर वह रुकी नहीं। उसकी गति और तेज हो गई।
 
 
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