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लघुकथाएँ - संचयन - चित्रा मुद्गल
पहचान
गेट के करीब पहुँची ही थी कि टिकट चेकर ने टोका, ‘‘टिकट प्लीज!’’
गुजरती हुई भीड़ से अलग होकर बड़ी सहजता से मैंने ‘वेनिटी बैग’ खोला। पाया कि वह छोटा पर्स ही नदारद है, जिसमें रुपए, रेजगारी और टिकट तीनों ही थे। चेहरा फक्क पड़ गया। पलक झपकते ही माजरा समझ गई.... कि पर्स उड़ा लिया गया है, मगर मन को तसल्ली नहीं हो रही थी। उँगलियाँ बैग का कोना–कोना तलाश रही थी। चेकर पर दृष्टि उठी तो पाया, एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट वहाँ डटी बैठी है। चेकर के पास जो भी खड़ा रहता है, वह संदिग्ध हो उठता है। मेरे आस–पास भी लोग एकत्र होने लगे।
‘‘लगता है, किसी ने ट्रेन में मेरा पर्स उड़ा लिाय!’’
चेकर के चेहरे पर विद्रूप गहराया, ‘‘बिना टिकट सफर करने वाले अक्सर यही दलील देते हैं। मैं इस झाँसों में नहीं आने का, सीधे–सीधे टिकट निकालए।’’
अपमान से बिन्ध गई, ‘‘क्या मैं ऐसी लगती हूँ?’’
‘‘देखिए, मुझे टिकट से मतलब है। न लिया हो तो कोई बात नहीं, जुर्माना भर दीजिए।’’
‘‘पर्स ही कट गया है तो जुर्माना कहाँ से भरूँ?’ उसने भरसक अनुनय किया, ‘‘विश्वास कीजिए। मेरा पता नोट कर लीजिए....मैं तुरन्त आपके पास पैसे भिजवा देती हूँ।’’
‘‘चरका देने की कोशिश मत कीजिए।’’ चेकर का स्वर उपहासपूर्ण हो आया, ‘‘आप–जैसी अपटूडेट लड़कियों के चोंचलों से मैं खूब वाकिफ हूँ। चार सौं रुपए की साड़ी लपेटे, माँग भरे, लोगों की जेबें काटती फिरती हैं.....तस्करी करती हैं....!’
जी में आया, चीखकर कहूँ, शिष्टता नाम की चीज से वाकिफ हैं आप? और तड़ाक से एक झापड़ रसीद कर दूँ।
‘‘कितना जुर्माना भरना है? सहसा एक शिष्ट स्वर ने हमें चौंका दिया....’’ मेरी दृष्टि उस व्यक्ति पर ठहर गई।
‘‘आप भरेंगे?’’ चेकर के स्वर में व्यंग्य स्पष्ट था।
‘‘जी मैं भरूँगा।’’
‘‘कल्याण लोकल है....जुर्माने के साथ पन्द्रह रुपए बीस पैसे हुए.....निकालिए।’’
‘‘रसीद काटिए।’’
पैसे भरकर वह मेरी ओर मुखातिब हुआ, ‘‘लीजिए, बहनजी!’’ रसीद उसने मेरी तरफ बढ़ा दी, ‘‘ये एक ही डंडे से सबको हाँकते हैं!’’
एहसान से अभिभूत हो मैंने आग्रह किया, ‘‘पास ही घर है। थोड़ी देर के लिए चले चलिए....मैं रुपए भी...’’
मेरी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि एक जुमला पीछे से उछला, ‘‘अरे दल चलता है इनका.....एक पकड़ा जाए तो दूसरा छुड़वा लेता है!’’
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