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लघुकथाएँ - संचयन - चित्रा मुद्गल
ऐब
‘‘आओ, आओ बहना!’’ उसने सास का स्वागत भरा लहकदार स्वर सुना तो कमरे के किवाड़ों की आड़ से आ लगी। गाँव की औरतों का जमघट नजर आया। माँ जी खमसार की ओर दौड़ी और दरी लेकर पलटीं। दरी बिछाती हुुई साग्रह सभी को बैठाने लगीं।
‘‘हमने सोचा, चलकर तुम्हारी बहुरिया को देख आएं। खूब धूमधाम से शादी हुई होगी शहर में......’’
‘‘खूब धूम–धाम से की.....मेरे कौन दो–चार बेटे हैं। इकलौता सुधीर ही तो है?’’ माँ जी ने कहा।
‘‘दान–दहेज भी खूब मिला होगा, बहना?.....दिखलाओगी नहीं?’’ उसका जी हौक–सा हो गया। क्या जवाब देंगी माँ जी? किसी तरह बाबूजी उसे पढ़ा–लिखा पाए थे। फिर सुधीर की तो जिद्द थी.....बाबूजी को उबार लिया था उसने, शादी करूँगा तो बस एक रुपया लेकर.....एक रुपया लेकर ही तो......
पर माँ जी! माँ जी की तो जरूर कुछ ख्वाहिशें रही होंगी। इकलौता बेटा जो है। खूब पढ़ा–लिखा। भले वे बेटे की मर्जी के सामने झुक गई हों, पर अब ?.....इस जमघट में मन की भड़ांस निकाले बगैर नहीं रह सकेंगी। यहाँ कोई भी तो नहीं, उनका दुख–सुख सुनने वाला।
पर यह क्या.....माँ जी का जवाब सुनकर वह दंग रह गई।
‘‘बहना, दान–दहेज पर ने मुझे विश्वासहै, न सुधीर को ही। भगवान का दिया सब कुछ है इस घर में। मुझे तो बस पढ़ी–लिखी बहू चाहिए थी, सो मिल गई। यही दान–दहेज समझो। भला बताओ, हे गाँव में किसी की बहू एम0 ए0 पास?’’
‘‘सो तो ठीक है, मगर कोई अपनी बेटी नंगी थोड़े ही भेज देता है बहना?’
‘‘ना भाई ना, वे देते तो भी हम कहाँ लेने वाले थे। सुधीर तो दहेज के सख्त खिलाफ है। बस, बहू देख लो, वही साथ लाए हैं।’’
उसकी आँखों में श्रद्धा नम हो गई। इज्जत रख ली माँ जी ने।
माँ जी ने उसे बाहर आने के लिए पुकारा। फिर जमघट में से उठकर भंडार–घर की और मुड़ लीं, ‘‘मुँह तो मीठा करा दूँ पहले....सूखे मुँह बहू देखोगी क्या सब!’’
वह करीब पहुँची भी नहीं थी कि फुसफसाहटें कानों में गर्म तेल–सी टपकी :
‘‘अकेल लड़िका...तिस पर परफेसर (प्रोफेसर)! अऊ बगैर दान–दहेज के.....?’’
‘‘हुँह!.......मोरी ऐसी हरिशचंदर की माई नहीं है बबुआइन! टब तक सुधिरवा बियाव के बरे राजी कहाँ होत रहै? छत्तीस को तो होई रहा है.......जरूरे लड़िका मा कुछ खोट होएगी...तभी तो खाली लड़िकी लेइके....’’
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