नवंबर की सर्दीली रात, शहर में सोती–जागती बत्तियाँ। विश्वविद्यालय की घड़ी ने वक्त के हंडे पर बारह जोरदार खोटके मारे, आसपास का माहौल टनटना गया।
यूनिवर्सिटी रोड पर कुछ रिक्शे वाले रोटियाँ सेंक रहे थे। चौराहे की ओर मुड़ते ही सड़क उजली हो उठी। एक दस–बारह साल का लड़का दीवारों पा ‘सत्यम्–शिवम्–सुन्दरम्’ का पोस्टर चिपका रहा था, फुल साइज के बड़े–बड़े पोस्टर।
छोटी बाल्टी में काढ़े की तरह लेई और ढेर सारा पोस्टर....काफी फुर्ती में था बेचारा।
मैंने उसकी बीड़ी से अपनी सिगरेट जलाई, और यूं ही पूछ बैठा, ‘पोस्टर लगाने का क्या रेट है?’
‘‘पांच रुपया सैकड़ा’’ अपना काम चालू रखते हुए ही उसने संक्षिप्त–सा उार दिया। मैं उन पोस्टरों में नायिका के अद्र्धनग्न रूप में, सत्य शिव और सुंदर तवों की खोज रहा था। तहाए हुए ढेर से एक सारे पोस्टर।
उसे लगातार व्यस्त देखकर मैंने अंदाजन कुछ पोस्टर उठाए, और साधिकार साइकिल की कैरियर में लगाकर बस चलने ही वाला था।
‘‘अरे साहब! मलिक मुझे बोत मारेगा, रख दीजिए,’’ लेई की बाल्टी सरकाते हुए लड़के ने टोक दिया।
मेरी चोरी पकड़ी गई थी, झेंप मिटाता हुआ बोला–‘‘अरे यार कमरे में लगाना है। दो–चार ही तो लिए हैं, मालिक क्या गिनने आ रहा हॅै?’’
‘‘बाबू जी कम–से–कम तीस पोस्टर लिया है आपने,’’ सीढ़ी को सीधा करते हुए उसी अनमनेपन से उार दिया उस छोकरे ने।
‘‘अबे! दिमाग खराब है क्या? ले गिन के देख ले, और चुराए गए पोस्टरों को ताव से फेंक दिया उसके सामने।’’
‘‘रही हमारी आपकी शर्त बाबूजी।’’ सहजता और आत्मविश्वास के साथ उसने मेरे द्वारा फेंके गए बिखरे पोस्टरों को तहाना शुरू किया और वहीं मुझे दिखाकर गिनना शुरू कर दिया।
एक,दो,तीन चार....छब्बीस,सााइस, अट्ठाइस, घा तेरे की, दो कम पड़ गया, उसने बाल्टी के नीचे दबे पोस्टरों से दो पोस्टर और निकाला। तीस पूरा करके मेरी साइकिल के कैरियर में खुद ही लगा दिया। औश्र उसी लापरवाही से बाल्टी, सीढ़ी और पोस्टरों को उठाकर नुक्कड़ पर चाय वाले की दुकान पर चला गया। गोया वह हार गया था और पलायन कर गया।
मुझे अपना किरदार बेहद ओछा लग रहा था, मुँह पिटा कर मैं कमरे में वापस आ गया।
-0-