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लघुकथाएँ - संचयन - नंदल हितैषी
व्यंजन
शाम होते ही बंबई की रंगीनियाँ गहरी उठी, ‘परेल’ स्थित ‘ए’ ग्रेड के ‘होटल एंड बार’ से सेठिया संस्थान का एक युवा लड़खड़ाते कदम से बाहर निकला, दरबान ने गेट खोला और सेल्यूट किया।
युवक होटल के सामने खड़ी अपनी फिएट तक आया, बेचैनी के कारण ‘स्टेयरिंग’ पर बैठकर तुरंत फिर बाहर निकल पड़ा और वहीं सड़क परही कै करने लगा। होटल केअंदर का खाया–पिया सब बाहर...उसी दरबान ने शीशे के जार में पानी पेश किया, युवक ने मुंह धोया, दो–चार कुल्ली किया और आँखों पर पानी के छींटे मारे। निश्चय ही अब वह कुछ राहत की साँस ले रहा था, पहले से काफी बेहतर।
युवक ने जेब से किसी महंगी सिगरेट का पैकेट निकाला, एक सिगरेट दरबान को थमाई, अपनी सिगरेट सुलगाते हुए अपनी झेंप मिटाई–
‘‘आज कुछ ज्यादा हो गई।’’
मुस्कराते हुए कार में दाखिल हुआ और कारों की आपा–धापी में उड़न–छू हो लिया।
एक भिखारी उधर से गुजरा, खिचड़ीनुमा कै को देखकर उसकी आँखों में एक अजीब किस्म की चमक उभरी।
वह वहीं बैठकर बड़े इत्मीनान से छितराये व्यंजन को चटकारे लेकर खाने लगा, और देखते–ही देखते चावल का एक–एक दाना ठूँस लिया अपने पेट में।
होटल में भीड़, लगातार बढ़ती ही जा रही थी, कारों का ताँता काफी लंबा हो गया था....वह भिखारी भी भीड़ में कहीं गुम हो गया।
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