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लघुकथाएँ - संचयन - नंदल हितैषी
पेट की पट्टी
कामदारों के बीच वह औरों की तुलना में कम उमर की थी, लेकिन थी साँवली और तीखी। घुटनों तक मैली–कुचैली धोती, कमर में किसी पुराने कपड़े का फेंटा, सिर पर सधाए हुए कुछ ईंटों का बोझा....फिर भी उसकी चाल में, कुछ अधिक ही फुर्ती रहती।
कारीगर, कन्नी और वसूली अंदाज से चलाते, जब भी वह अपनी पारी पर आती–जाती उसे छेड़ने से बाज न आते।
‘‘जल्दी–जल्दी हाथ बटा लो, छुट्टी होने में बस आध घंटे की कसर है’’- बेलदार ने सुगनी की ओर मुस्कराते हुए शब्द उछाले।
सुगनी अपनी कमर का फेंटा पेट खलाकर कसने लगी, स्तन तनिक हिले और थिर हो गए, वह ईंटों का बोझा फिर से तहाने लगी।
अबकी बार उस अधेड़ मिश्री ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘तू तौ जनौ बुढ़ाय गई? देखो त फेंटा कसे हैं, कमर दरद करत होई का सुगनी?’’
‘‘अरे दादा! ज्वानी में तुमरा माँ झा ढील हुआ होई, ई फेंटा आई इया पेटे में पट्टी, ईका हम जियादा जानत हन’’
सगुनी ने नहले पर दहला मारा और आगे बढ़ गई।
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