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लघुकथाएँ - संचयन - अरुण कुमार
दौड़
एक जमाना था जब वह अपने स्कूल का डेढ़–दो किलोमीटर का रास्ता पैदल ही तय किया करता था। र के छोटे–छोटे काम भी वह पैदल ही निपटाता था। वह अपने साथ पढ़ने वाले उच्च मध्यवर्गीय परिवारों के लाडलों को साइकिलों पर स्कूल आते–जाते देखकर वह बाज़ारों में भी साइकिलों पर ही घूमते देखकर ठंडी आहें भरा करता था और अपने पास भी एक अदद साइकिल होने की कामना किया करता था । वह भीड़ भरे बाज़़ार में तेजी से गुजरते साइकिल सवारों के जरा–सा छू जाने से या टकराने की सम्भावना भर से ही कुढ़ उठता था–‘‘पता नहीं, साले पैदल चलने वालों को कुछ समझते ही नहीं!’’
एक समय आया जब उसके पास ही खुद की एक साइकिल थी। माँ–बाप ने गुगज बिठाकर उसके लिए एक साइकिल खरीद दी थी–अब बेटा बड़ी क्लास में है....ट्यूशनें पढ़ने जाना भी लाजिमी है–कुछ ऐसा ही सोचकर। वह पैदल चलने वालों को पीछे छोड़ने लगा। कभी कई पैदल चलता व्यक्ति उसकी साइकिल के सामने आ जाता तो वह बड़बड़ाता, ‘‘पंगडंडी पर क्यूँ नहीं चलता भाई?.....’’
किसी स्कूटर–मोटर साइकिल वाले के पीछे से हॉर्न देने पर वह कुढ़ता–‘‘ज्यादा टीं–टीं न कर, तुझे जितना सड़क पर चलने का हक है मुझे भी उतना नही हक है।’’
कुछ समय पश्चात उसका विवाह हुआ तो स्कूटर उसे दहेज में मिला था। हवाओं से बातें करता वह। बड़े वाहनों मसलन कार, जीप वगैरह से वह रेस लगा बैठता, चलते–चलते यूँ ही जोश में आकर। साइकिल सवारों व पैदल चलते राहगीरों से चिढ़कर उसने भीड़ वाले बाज़ारों में जाना ही छोड़ दिया। बड़ी चौड़ी चलती सड़क पर कार वालों की तेजी पर या उनसे साइड माँगने पर वह अपने पीछे बैठे सह–सवार से कहता–‘‘देख तो कार में नवाब साहब बैठा है!’’ अनेकों बार उसकी कार वालों से बहस छिड़ जाती। अपनी गलती होने पर भी वह कहता, ‘‘सड़क है, धीरे नहीं चल सकता।’’ बमुश्किल लोग बीच–बचाव करवाते।
रिटायरमेंट से कुछ बरस पहले उसने लोन वगैरह लेकर एक मारुति कार खरीद ली थी। अपने पास–पड़ोस में उसने लड्डू बाँटे। आज उस नौजवान की आँखें सलामत होते हुए भी वह उस पर बरस पड़ा, ‘अबे अन्धा है क्या?....साले दिखता नहीं....मरने के लिए तुझे मेरी ही कार मिली है क्या!’’
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