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लघुकथाएँ - संचयन - अरुण कुमार
बेवफ़ा
आदमी की चेतना पर शराब का नशा हावी होता जा रहा था।
ऊपर से सिगरेट का वजूद भी नशे कीआग में घी का काम कर रहा था! मौका पाकर बोतल की शराब मेज पर पड़ी डिब्बी की एक सिगरेट से बोली–‘‘वैसे एक बात तो है....ये आदमी मेरा है बड़ा वफ़ादार। अब देखो न, मेरे लिए यह अपनी पूरी तनख्वाह तो फूँक ही देता है। अपने घर का कीमती सामान भी उसने एक–एक कर मेरे लिए होम कर दिया है।....और कल ही तो उसने अपनी पत्नी की इज्जत का सौदा भी मेरे लिए ही....’’
‘‘ठीक है, ठीक है। तू खुद पर ज्यादा न इतरा....’’, सिगरेट बिना आग–धुएँ के ही जलते हुए बोली, ‘‘यह मत भूल कि तेरा और मेरा चोली–दामन का साथ है। जिसने तुझे पिया न, फिर समझ कि वह मुझे भी जरूर पिएगा.....’’
कमरे में एक औरत को प्रवेश करते देख दोनों चुप लगा गई। औरत की अवस्था दयनीय थी। भूख से बिलखता एक बच्चा उसकी गोद में था और दूसरा दीन–हीन से चेहरे वाला बच्चा उसकी उँगली थामे था। उसे देखकर शराब सिगरेट के कान में फुसफुसाई–‘‘समझ ले पड़ गया रंग में भंग....एक नम्बर की लड़ाकी है यह....’’
औरत आदमी को शराब पीते देखकर रोने लगी–‘‘तेरी आँखें कब खुलेंगी रे निर्लज्ज? तूने क्यूँ हमें दर–दर का भिखारी बना दिया?..मेरी न सही तो कम–से–कम इन बच्चों की खातिर ही तू सुधर जा रे.....’’
आदमी पर कोई भी असर न पड़ते देख औरत शराब की बोतल को इंगित कर नफरत से बोली, ‘‘पता नहीं इस सौतन से कब हमारा पीछा छूटेगा और कब हमें चैन का जीवन नसीब होगा?’’
सुनकर शराब तो भड़की ही, आदमी भी आपे से बाहर हो गया। बहन की गाली देता हुआ बड़बड़ाया–‘‘समझ ले आज तेरा किस्सा ही खत्म है’’ उसने मेज के नीचे से एक पुरानी शराब की खुली बोतल उठाई और उसे आधी तोड़ कर वह औरत की ओर लपका। नशे में उसका पैर मेज के एक पाए में उलझ गया। शराब की बोतल फर्श पर गिर कर टूट गई और वह टूटी बोतल और बिखरी शराब पर औंधे मुँह गिर पड़ा। हाथ की जलती हुई सिगरेट के सम्पर्क में आते ही शराब भभक उठी। देखते–ही–देखते लपटों से घिर गया। जब तक औरत ने चीख–चिल्ला कर पड़ोसियों को सहायता के लिए बुलाया....आदमी पूरी तरह झुलस चुका था।
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