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लघुकथाएँ - संचयन - अरुण कुमार
पढ़े–लिखे
किसी कार्यवश नर्स लेबररूम से बाहर आई तो माँ से रहा नहीं गया, पूछने लगी, ‘‘सिस्टर, कुछ हुआ क्या?’’
बुझे से स्वर में नर्स बोली, ‘‘हाँ, गुडि़या हुई है।’’
माँ, पिताजी के साथ–साथ मेरा और भाई का चेहरा भी उतर–सा गया। माँ तो साड़ी का पल्लू लपेटकर ऐसी गुमसुम–सी बैठ गई मानो कोई गमी की सूचना पा गई हो। कुछ पलों की बोझिल–सी चुप्पी को तोड़ते हुए पिताजी बोले, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, जी छोटा मत करो। दूसरी बेटी को भी भगवान का प्रसाद समझकर स्वीकार करो। आखिर ये सब अपने हाथ में थोड़े ही होता है, ये सब तो कर्मों के खेल हैं।’’
पिता जी मुस्कुराने लगे, बोले, ‘‘यार, मुझे तो पूरा यकीन था कि इस बार तो तुझे बेटा ही होगा। मैंने तो सोचा था कि तू और बहू, दोनों ही पढ़े–लिखे हैं, समझदार हैं। मैंने तो इसीलिए तुम दोनों को नहीं टोका कि टैस्ट वगैरह तो करवा ही लिया होगा?’’
भाई भी बोला, ‘‘और क्या यार, टैस्ट तो करवा ही लेना था। चप्पे–चप्पे पर तो दुकानें खुली हैं। अब भले ही सरकार ने सख्ती कर रखी है पर चोरी–छिपे तो सब चलता है।’’
पिता जी और भाई की बाते सुनकर मुझे लगाकि मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर ली है।
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