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लघुकथाएँ - संचयन - रामकुमार आत्रेय
बड़ा घर

‘‘आज शहर नहीं जाते तो अच्छा रहता। कहीं आपके पिताजी आज....।’’ पत्नी ने अपने पति को शहर जाने की तैयारी करते देखकर कहा।
‘‘मुझे पता है, पिताजी अब ज़्यादा देर हमारे बीच नहीं रहेंगे। आढ़ती ने आज पैसा देने का वायदा किया था। पैसे लेते ही लौट आऊँगा। तब तक तुम पिताजी के पास रहना।’’ पति ने जल्दी से तैयार होते हुए उार दिया।
‘‘शहर जा ही रहे हो तो लौटते समय वहाँ से एक अच्छा–सा दुशाला ख़रीद लाना। गाँव में तो अच्छा दुशाला मिलने से रहा।’’
‘‘दुशाला!’’ पति ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘दुशाले की क्या ज़रूरत है? मेरे पास तो अपनी काशमीरी चादर है ही। कहीं बाहर जाना होता है तो ओढ़ लेता हूँ।’’
‘‘आजकल बड़े घरों में बड़े–बूढ़ों के गुज़रने पर सफ़ेद कफ़न की जगह दुशाला ओढ़ाने का रिवाज़ चल पड़ा है। यदि हम उन्हें क़फ़न की जगह दुशाला नहीं ओढ़ाएँगे तो हमारी नाक नहीं कट जाएगी क्या? लोगों की नज़रों में तो अपना घर भी बड़ा ही है न।’’ पत्नी ने समझदारी का परिचय दिया था।
‘‘ठीक है, दुशाला तो ले आऊँगा। लेकिन इसी बात पर मुझे याद आया कि पिता जी आज कंबल ओढ़े हुए हैं। वह किसने ओढ़ाया है?’’
‘‘और कौन ओढ़ाएगा, मैंने ही ओढ़ाया है।’’

‘‘कितनी पागल हो तुम भी। अपने यहाँ मुर्दों के साथ उसके सभी कपड़े–लत्ते फूँकने लगे हैं लोग। अब यह नया कंबल भी साथ ही फूँक देना पड़ेगा। पुराना कंबल तो उनके पास था ही।’’ पति ने नाराज़ होते हुए कहा।
‘‘गाँव के लोग ससुर जी का हाल–चाल पूछने आते रहते हैं। उनकी देह पर पड़े पुराने कंबल को देखकर क्या कहते। क्या शर्म नहीं आती हमें?’’
पत्नी का उत्तर सुनकर पति चुपचाप बाहर निकल गया।
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