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लघुकथाएँ - संचयन - रामकुमार आत्रेय
भाग्य

बूढ़़ा आदमी जब भी बाहर निकलता अपने भाग्य को कोसता हुआ निकलता। दुर्भाग्यवश कुछ दिन पहले आॅपरेशन के दौरान उसकी आँखों की रोशनी जाती रही थी। सि़र्फ़ एक आँख से वह धूप–छाँव ही देख रहा था। अक्सर ठोकर खाकर गिर जाता। आज भी वह इसी तरह अपने भाग्य को गालियाँ देते हुए आगे बढ़ रहा था कि अचानक कोई आदमी उससे आ टकराया। वह गिरते–गिरते बचा। उसका बदन गुस्से से तिलमिला उठा। वह चिल्लाया, ‘‘देखकर नहीं चलते......भगवान ने मुझे तो अंधा कर दिया....तू भी अंधा है क्या, बेशर्म!’’
उसके मन में आया कि स्वयं से टकराने वाले व्यक्ति की गर्दन दबा दे। ऐसा करने के लिए उसके हाथ एक बार ऊपर को उठे ,पर तभी सामने वाले व्यक्ति की गिड़गिड़ाती हुई आवाज सुनाई दी, ‘‘माफ करना बाबा, मैं तो सचमुच में ही अंधा हूँ....मुझे कुछ नहीं दिखाई देता......अपना बच्चा समझकर मुझे माफ़ कर दो।’’
बूढ़े के ऊपर को उठे हुए हाथ तत्काल नीचे चले गए । सामने वाले की ओर ध्यान से देखते हुए एकदम से पूछा-‘’क्या उम्र होगी तुम्हारी?”
‘‘यही कोई बारह–तेरह वर्ष होगी, बाबा।’’ सामने वाले का बाल–सुलभ स्वर सुनाई पड़ा।
‘‘कैसे और कब से जाती रही तुम्हारी आँखों की रोशनी?’’
‘‘मैं तो जन्म से अंधा हूँ बाबा।’’ उसके मुँह से कँपकँपाता हुआ स्वर निकला। मानो वह मन ही मन रो रहा था।
इस घटना के पश्चात् बूढ़े ने अपने भाग्य को कोसना बंद कर दिया।
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