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लघुकथाएँ - संचयन - सुदर्शन प्रियदर्शिनी, यूएस ए
सभ्यता
माँ आप जानती हैं -यहाँ हमारी नौकरानी भी अंग्रेजी बोलती है , वह भी आप से अच्छी और फराटेदार ।
हूँ … !
आप अगर यहाँ आ ही रही हैं तो आप को यहाँ उसी तरह रहना होगा जैसा हम रहते हैं ।
वह कैसे !
यानी अंग्रेजी बोलना, हमारी तरह खाना - पीना !
मुझे क्या यह बताने की जरूरत है कि हम हिन्दुस्तानी हैं बेटा !
पर मैं नही ।
यह तो याद है न कि तुम हिंदुस्तान में पैदा हुए हो !
पर मैंने अमेरिकेन होने की शपथ खाई है । और लोगों को मालूम है कि मैं ……
यानी तुम लोगों को बताते हो कि तुम अमेरिका में पैदा हुए हो !
हाँ कुछ ऐसा ही ।
पर मैं तुम्हारी तरह या ओबामा कि तरह यह सच कैसे झूठला सकती हूँ।
झुठलाओ मत, पर कहो भी मत ।
तो अब तुम बाते घुमाना सीख रहे हो !
हूँ ! उस के पास इस बात का जवाब नही था ।
अपनी पहचान को भी छुपाना सीख रहे हो - यानी तुम कह रहे हो कि आना हो- तो इन शर्तों पर आओ वरना । । ।
नही … नही ऐसी बात नही है माँ ।
मतलब यह है कि तुम्हारी बाँधी रस्सियों पर नट की तरह चलू और तुम मेरा करतब देखो !
देखिये आप बात को घुमा रही हैं ।
अच्छा … !
याद रखना तूने नही, मैंने तुम्हे पैदा किया है ।
हाँ ! पर आप आज के जमाने की तो नही है ना ! और यहाँ रहने के लिए यह सब करना पड़ता है माँ ।
हूँ !… उस की रक्त वाहिनियों में कुछ टूटे काँच सा चुभा ।
पर आप बताये कि कब आ रही हैं ?
उम्र भर हिचकोले खाते -ख्यालों में घूमती जिन्दगी इस नट की रस्सी पर आकर उलझ गई है - चलूँ तो उनकी चाल , बोलूँ तो उन की बोली और नकारू तो अपना अस्तित्त्व !।
अपने आप को इस नई पनपी सभ्यता के दो घाटो के बीच बाजरे की तरह पिस कर नही जी सकती ।
अभी नही ! और उसकी आँखें भर आई ।
वह मन ही मन फुसफुसाई - शायद कभी नही ।
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