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लघुकथाएँ - संचयन - सुदर्शन प्रियदर्शिनी, यूएस ए
यायावर
मेरी अंदर की कोई दशहत ,कोई टूट मुझे कोड़े लगाकर दौड़ाती रहती है । मैं भाग रही हूँ -अपने से -इस से -उस से या सब से । पर फिर जहाज के पंछी की तरह लौट आती हूँ , खाली की खाली ।
कहीं बैठ नही पाती ।
क्यों ?
नही जानती । कौन सा खालीपन है जो मुझे इस चक्करघिन्नी मै लपेटे है ।
लडकी है !
मैं मुँह बाये -आँखें मिचमिचा रही थी । अभी होश नही आया था पूरा । सिजेरियन था । उस का मेरे ऊपर झुका हुआ चेहरा - मुझे पंजे की तरह नोच रहा था ।
लडकी है !
एकाएक कमरे का बल्ब फ़्यूज़ हो गया । अच्छा हुआ नहीं तो आँधिया ओंधे मुँह गिरती ।
फिर घर बाहर -बच्चे और एक नकार ढोने का ठेका था । मैं चाहे कहीं भी हूँ। ।
मैं बाहर हूँ । जगह बदल लेने से दिन के रात या रात का दिन हो जाने से -मौसम अपना स्वभाव नहीं बदलते ।
अब सब कुछ निपट भी गया पर भाग जारी है । अंदर- बाहर रिसता -रिसता खाली हो जाता है । रोज भर्ती हूँ उसे -थोडा प्यार ,थोडा सौहार्द - थोड़ी मैत्री , सुलह -समझौता सब कुछ मिला मिला कर ।
पर हर सुबह -वह फिर खाली टन-टन बजता है घड़े की तरह ।
मैं पानी की तरह फिर दौडती हूँ बाहर । कुँए की मेड़ पर । नदी के किनारों पर । पर मेरे चारों और सिर्फ किनारे हैं । पानी में उतरना नहीं है ।
उतरती हूँ तो डूब जाती हूँ । किनारे पर बैठी भी ड़ूब रही हूँ ।
यह कैसा भवसागर है रे । बाहर भी डूबे अंदर भी डूबे ।
मैं कुएँ की मुंडेर हूँ । जो कुएँ को चारों बाहों में समेटे रहती है ।
पर मेरा पानी कुएँ से बाहर निकलने को आतुर है !
कोई हो जो अंजुरी में भरे और मुझे वापिस उड़ेल दे कुएँ में ।
क्या यही मेरी नियति है । मैं यायावर हूँ। , मैं भटकन हूँ । युगों से अपने आप को तलाशती । मैं लडकी हूँ ।

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