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लघुकथाएँ - संचयन - सुदर्शन प्रियदर्शिनी, यूएस ए
वे आँखें
वे आँखें आज भी मेरा पीछा करती हैं।
यहाँ आ कर सब हुआ। सब दुनियाई सपनों की पूर्त्ति भी हुई. पर मेरे मन की धर्मशाला और चेरापूंजी की बारिश यहाँ चाय नही उगा सकती थीं। मेरे रेगिस्तानी रेहड़ों की रुनझुन या राजस्थानी संगीत पैदा नही कर सकती थी , मेरे नक्शे की लकीरें - यहाँ का भूगोल नहीं बना सकती थी। मेरे नक्शे की राजधानियां नहीं बदली और मैं केवल घर की चौखट नापती रह गयी।
यहाँ त्रिवेणी की रहस्यमयी तरंगो का निमंत्रण नही था , न रामेश्वरम् का सूर्योदय और न सूर्यास्त।
यहाँ बड़े बड़े समुन्दरों में बेड़े की तरह ड़ूब जाने वाला सूरज तो था पर मेरे देश की लाली नही थी।
दूर-दराज़ घरों में सिमटे हुए बच्चे थे -उन का सयंमित व्यवहार -माँ-पिता की औपचारिकता , सभ्यता की ओड़नी थी पर वह तख़्त पोश के सामने वाली कुर्सी पर बैठी मां का -ममता की जुगाली करता हुआ आग्रह नही था -जो पूछ रहा था -
बाहर क्यों जा रहे हो ?
और कब तक लौटोगे ?
यहाँ त्वरा में बंधी जिंदगी थी। मशीनों से चालित दिनचर्या थी और चार पहियों वाले हिंडोले में दिन भर झूलने की व्यस्स्ता थी, इधर से उधर, उधर से इधर।
वे आंखे आज भी मेरे पीछा करती हे जब किसी सीढ़ी से उतरती हूँ तब , जब कोई पायदान चढती हूँ तब ऐसा लगता है एक रौशनी की लकीर होती है जिसे हम आप ही मुट्ठी में बांध कर -ढक कर अनदेखा कर देते हैं।
जब तक मुट्ठी खुलती है वह रौशनी मर चुकी होती है।
आज वह आँखें बंद हो गई हैं।
उन से आती हुई अनदेखी रौशनी बंद हो गई है।
पर मेरे जहन में वे आँखें आज भी मेरा पीछा कर रही है और पूछे जा रही हैं -
क्यों जा रहे हो और कब तक लौटोगे ?
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