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लघुकथाएँ - संचयन - अंकुश्री
अपनी–अपनी व्यवस्था
अंदर खचाखच भीड़ के कारण देह से देह छिला रही थी। जितने लोग बैठे थे, उससे अधिक खड़े थे। खड़े लोगों में से कुछ ने अपने हाथों में सामान भी पकड़ रखा था।
प्लेटफार्म की भागदौड़ अब कम हो गयी थी और डिब्बे में हलचल अधिक बढ़ गयी थी। कुछ आवाजें भी प्लेटफार्म से डिब्बे में घुस आयी थीं। उनमें मूँगफली, पान और झालमुड़ी बेचने वालों की आवाजें विशेष रूप से सुनाई दे रही थीं।
डिब्बे में सवार लोगों का गंतब्य अलग था, उनकी समस्याएँ अलग थीं। उनका चेहरा अलग था ही, उनका व्यवहार भी अलग था। वे लोग बोल रहे थें, मगर आपस में कम, एक–दूसरे पर अधिक। टिकट लेकर चढ़ने पर भी नहीं बैठ पाने की कुव्यवस्था पर भी कुछ लोग बोल रहे थे। कुछ लोग इसलिए बोल रहे थे, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि उन्हें भी बोलना चाहिए।
खिड़की के निकट की सीट पर एक ब्रीफकेस रखा था। उसे हटा कर वह बैठने ही जा रहा था कि ऊपर से आवाज आयी, ‘‘कहाँ तक जाना है?’’
सामान रखने के लिये बनी ऊपरी बेंच पर एक सज्जन लेटे थे। आवाज उन्हीं की थी। उसे खुशी हुई कि यात्रियों की अनजानी भीड़ में से किसी ने उसके बारे में भी सोचा। किन्तु उसका गंतब्य सुन कर जब सज्जन ने कहा, ‘‘मुझे वहाँ बैठना है’’ तो उसकी सारी खुशी हवा हो गयी।
डिब्बे में खड़ा होने की जगह नहीं थी। फिर भी वे सज्जन न केवल लेटे थे, बल्कि बैठने के लिए उन्होंने दूसरी जगह भी छेंक रखी थी। अपनी व्यवस्था के प्रति वे बहुत खुश थे। उनकी खुशी चेहरे से साफ झाँक रही थी।
वह उनकी व्यवस्था देख कर दंग था। तभी एक यात्री ने ब्रीफकेस हटा कर वहाँ बैठते हुए अपने सहयात्री को आवाज लगायी,‘‘तुम भी बैठ जाओ !’’
सहयात्री नीचे रखे ब्रीफकेस पर बैठ गया। तभी दो और यात्री आगे आए और ऊपर लेटे हुए सज्जन को बैठाकर खाली हुई जगह में बैठ गए। मगर उस सज्जन के मुँह से कोई आवाज नहीं निकल पाई। लोगों की अपनी–अपनी व्यवस्था देख कर वह भी खिड़की से सट कर एक तरफ खड़ा हो गया।
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