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लघुकथाएँ - संचयन - अंकुश्री
गिरफ्तारी
‘‘इतनी रात में कहाँ घूम रहा है रे ?’’
‘‘आफिस से आ रहा हूँ ,– –लेकिन अभी तो सात भी नहीं बजा है !’’
‘लेकिन स्साला, यह तो बताओ! कल रात डकैती में तेरे साथ और कौन–कौन थे ?’’
‘‘– – – डकैती में ?– – –मेरे साथ ?– – –मैं कुछ समझा नहीं– – –मैं तो आज पहली बार इस शहर में आया हूँ । ’’
‘‘आज बारह बजे दिन में जो दुकानें लूटी गयी हैं, उसमें तेरे साथ कौन–कौन थें ?’’
‘‘मैं तो पूरे दिन आफिस में था। आज ही ट्रांसफर होकर यहाँ ज्वाइन किया है। किसी लूट की बात जानता तक नहीं। ’’
‘‘आज की लूट में तेरी हुलिया का भी आदमी था। तू नहीं था तो तेरा भाई होगा। ’’
‘‘मेरा कोई भाई नहीं है। ’’
‘‘तो तेरा बाप होगा। ’’
‘‘वे तो कब के मर चुके हैं। ’’
‘‘तब तेरा बेटा होगा। ’’
‘‘मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है। ’’
‘‘जब न तू था न तेरा भाई, न तेरा बाप था न बेटा ही तो डकैती और लूट में कौन था ? चल, थाना चल ! बहुत देर से बहस कर रहा है। ’’
‘‘लेकिन मैं निर्दोष हूँ , मुझे छोड़ दीजिए। ’’
‘‘तू दोषी है या निर्दोष – यह न्यायालय में बताना; अभी थाना चल। ’’
‘‘– – –आज बॉस ने दिन में काम दिया था। यदि नौ बजे रात तक मैं अपने बॉस के बंगला पर काम की रिपोर्ट करने नहीं पहुँचूँगा तो मेरी नौकरी जा सकती है। ’’
‘‘तुझे नौ बजे की चिंता है। लेकिन शहर में कल रात हुई डकैती और आज की लूट के सिलसिले में मुझे आठ बजे रात तक गिरफ्तारी पूरी करनी है। इसलिए चोरी के बाद सीनाजोरी मत दिखा, चुपचाप मेरे साथ चल !’’
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