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लघुकथाएँ - संचयन - अंकुश्री
जाति
स्टेशन पर ट्रेन की प्रतीक्षा में बैठे दो व्यक्तियों में काफी देर से बातचीत हो रही थी। एक ने दूसरे से पूछा, ‘‘आप किस जाति के हैं ?’’
‘‘आदमी’’
‘‘वह तो ठीक है। मगर आदमी में कौन जाति के आदमी हैं ?’’
‘‘मैं आदमी हूँ , क्या मेरे लिए इतना काफी नहीं है ?’’
‘‘आपने समझा नहीं ! मेरे पूछने का मतलब यह नहीं है। ’’ कुछ रुक कर, मगर परेशानी महसूस करते हुए उसने फिर पूछा, ‘‘आदमी तो आपके जीव की जाति हुई। इससे पता चलता है कि आप घोड़ा, गदहा, उल्लू, सांप, कीट–पतंग आदि नहीं है, बल्कि आदमी हैं !’’
‘‘हाँ ! आप अब तो समझ गए ? – – – मैं आदमी हूँ ।’’
‘‘आदमी तो हैं, वह मैं भी देख रहा हूँ । लेकिन आदमी में आप किस जाति के सदस्य हैं ?’’
‘‘कोई किस जाति का सदस्य है, जीवन जीने के लिए उसके चेहरे पर यह लिखा रहना जरूरी है क्या ?’’
‘‘आप मेरी बात समझ नहीं पा रहे हैं शायद।’’
‘‘समझ रहा हूँ , खूब समझ रहा हूँ । और मैं अपनी जाति भी बता चुका हूँ , आदमी हूँ। ’’ कुछ रुक कर, ‘‘आपकी जाति पूछने की मुझे जरूरत नहीं रह गई है, क्योंकि आप कम से कम मेरी जाति के तो हो ही नहीं सकते। ’’
तभी गाड़ी आ गई और दोनों हड़बड़ा कर अलग–अलग डिब्बों में चढ़ गये।
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