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लघुकथाएँ - संचयन - रमेश गौतम
गंगा स्नान
ब्रह्य मुहूर्त की बेला और गंगा के किनारे तक तंबुओं में टिमटिमाती रोशनी भक्तजन ‘जय गंगा मैया’ के उदेष के साथ पवित्र गंगा स्नान करने जा रहे हैं। कुछ गंगा स्नान का पुण्य लाभकर लौट रहे हैं। उनमें वे पाँच भी हैं जो पिछले तीन दिनों से गंगा के एकांत छोर पर अपना डेरा जमाए हुए हैं।
तंबू में प्रवेश करते उनमें से एक बोला–यार आज स्नान में कुछ भी आनंद नहीं आया।
एक भी ढंग की चीज नजर नहीं आई।
दूसरे ने टोका–‘‘अबे चुप भी कर, अभी रात बाकी है। अपनी लाल परी निकाल।’’
तीसरे ने ताश फेंटने शुरू किए। अब वे पाँचों शराब के दौर और ताश की बाजी में खो गए।
एक नारी स्वर ने पाँचों को चौंका दिया उनमें से एक बाहर आया तो देखा–एक प्रौढ़ा भिखारिन एक शिशु को गोद में लिए और एक अबोध की उंगली पकड़े याचना की मुद्रा में खड़ी थी। उसने सिर से पांव तक उसको भरपूर दृष्टि से देखा और भीतर बुला लिया।
पाँचों ने कुछ खुसर–फुसर की और सौदा पटा लिया। भिखारिन ने बच्चों को एक ओर बिठा दिया।
थोड़ी देर बाद ज्यों ही वह बाहर निकली उनमें एक ने कहा–‘‘मुझे एक बार फिर गंगा स्नान करना पड़ेगा।’’
चारों एक साथ बोल पड़े और ‘हमें भी’।
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