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लघुकथाएँ - संचयन - रमेश गौतम
फरिश्ता
रहीम बक्श तुमने काफिर को अपने र में पनाह दी है और उसकी हिफाजत में दोनों–मजहब को भी भूल गए, अल्लाह तुझे दोजक में भी जगह नहीं देगा। धर्माध दंगाइयों के रहनुमा चिल्लाए, जवाब में दरवाजे खुल गए। सामने रहीम बक्श दोनों बाजुओं को दरवाजे पर फैलाए बेखौफ खड़ा था और पनाहगीर पीछे।
रहीम बक्श ने पूरी नजर मियां भाई के पीछे खड़ी भीड़ पर डाली और पनाहगीर रुनाथ को आगे ढकेल दिया।
‘‘मारो....मियां भाई। मारो इस काफिर को’’ जरूर मार डालो, लेकिन....इस सलमा को देखो। सलमा जो अब तक पीछे खड़ी थी। सुबकती हुई आगे आ गई।
‘‘मेरी जवान बेटी को इसी ‘काफिर’ ने दंगाइयों की दरिंदगी से बचाकर यहाँ तक पहुँचाया और खुद फंस गया।’’
मियां भाई ने मुड़कर पीछे देखा और बुदबुदाए....‘फरिश्ता’ भीड छंट गई थी।
सलमा ने रुनाथ से कहा–
‘‘भाईजान! अंदर चलो!’’
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