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लघुकथाएँ - संचयन - डॉ. सुरेंद्र मंथन
कंधे पर बैठा आदमी
दुर्घटना में उसकी एक टांग जाती रही। हाथ में भिक्षापात्र पकड़े, वह दिन भर सड़क-किनारे एक राहगीरों से दया की भीख मांगता रहता। एक दिन उसने सड़क के दूसरे किनारे एक अँधे को भीख माँते देखा। अँधे के गले में गजब का जादू था।
एक दिन लंगड़े ने अँधे के सम्मुख प्रस्ताव रखा, “हम यहाँ दिन भर निट्ठले बैठे रहते हैं। न तुम कहीं आ-जा पाते हो, न मैं। ऐसा करते हैं, मैं तुम्हारे कंधों पर चढ़ कर तुम्हें रास्ता दिखाता जाऊँगा। घूम-फिर कर हम ज्यादा कमा लेंगे।”
अँधे ने स्वीकृति सूचक सिर हिला दिया। सहानुभूति और प्रतिभा के संगम ने लोगों का बहाव उनकी ओर खींच दिया।
कुछ ही दिनो में लंगड़ा मलाई-रबड़ी खा कर मोटा-ताजा हो गया। अँधे के गालों की हड्डियाँ उभर आयीं। लंगड़े का बोझ ढोते-ढोते उसके गाने का अभ्यास भी छूट गया।
एक दिन पसीने से बेहाल अँधे ने पूछा, “भाई, इतने दिनों का साथ हुआ। अपना नाम तो बताओ।”
“इण्डिया।” लंगड़े ने कहा, “और तुम्हारा?”
“भारत।”
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