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लघुकथाएँ - संचयन - डॉ. सुरेंद्र मंथन
ज़िंदा मैं
कांतिलाल मेरा प्रतिद्वंदी था। कैसा भी अफसर हो, आते ही दबोच लेता था। उसकी अचानक मौत ने मुझे अवसन्न कर दिया। हम जिससे घृणा करते हैं, उसके किसी अंश पर जान भी छिड़कते हैं।
उसकी दाह-क्रिया से लौटते हुए मन भारी हो आया। कितने मंसूबे बनाता है आदमी; जोड़-तोड़ करता है; जायदाद खड़ी करता है। जाना तो एक दिन सबने खाली हाथ है। मैंने निर्णय लिया, अब किसी दौड़ में हिस्सा नहीं लूँगा।
अगले दिन कार्यालय पहुँचने पर मालूम हुआ, कांतिलाल की रुपया उगलती सीट भाटिया ने हथिया ली है।
मुझे क्या! मैंने मन को समझाया। जाना तो सबने एक दिन वहीं है।
कुछ दिन बाद शंकर कागज़ों का पुलिंदा आगे फेंक गया। – इन्हें जरा टाइप कर देना यार, साहब ने कहा है।
थकावट के बावजूद मैं इंकार न कर सका। साहब खुद बुला कर कह सकता था। साहब की पूँछ कब से बन गया शंकर? कल तक तो आँख मिलाकर बात नहीं कर सकता था।
फिर एक दिन चुघ घटिया मज़ाक पर उतर आया। – आजकल कांतिलाल के घर के खूब चक्कर लगते हैं यार, देखना।
–देखना क्या? कहना क्या चाहते हो तुम?
उसने आँख दबा दी। होंठ टेढ़े कर के हवा में चुंबन लहरा दिया।
मेरे मुर्झाए चेहरे पर बिजली-सी कौंध गयी। उछल कर चुघ के सामने आ खड़ा हुआ। इससे पहले कि वह संभलता, उस की मोटी तोंद पर ज़ोरदार झापड़ रसीद कर मैं चिल्लाया– अभी मैं ज़िंदा हूँ, सालो।
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