सतवीर मिलते ही फक्कड़ अंदाज़ में बोला– चलते हो दिल्ली, फोकट में? युवा क्रांति-दल का ट्रक जा रहा है। वैसे हैं तो साले चोर, लेकिन अपना क्या जाता है। मुफ्त की सैर। चाय-पानी फ्री। बोल?
मैंने समझाने के अंदाज़ में कहा– अपनी पार्टी के लोग क्या सोचेंगे?
–कोई कुछ नहीं सोचता। तू हाँ कर।
ट्रक में सिर्फ दस-बारह आदमी थे। कुछ व्यापारी टाइप लोग भी एक तरफ का किराया बचाने की गर्ज़ से जा रहे थे। सतवीर ने अपने चार-पाँच दोस्तों को भी बिठा लिया। अब ट्रक में अपना बहुमत था।
ट्रक जी.टी रोड पर पहुँचा तो गाँवों-कस्बों से रैली में भाग लेने वाले वाहन साथ जुड़ते गये। अच्छा-खासा काफिला बन गया। नारों से आकाश गूँज रहा था।
अचानक खड़ा हो कर सतवीर क्रांति-दल विरोधी नारे लगाने लगा। हमने भी साथ दिया। ट्रक में बैठे दल के कार्यकर्ता खींसे निपोर कर रह गये। हमें रोकने की हिम्मत उनमें नहीं थी।
काफिला देहली की ओर बढ़ता गया।
हम गंतव्य तक पहुँचे तो जन-समूह का आर-पार न था। सुनने में आया, अभूतपूर्व उपस्थिति थी। दूरदर्शन ने भी सम्मेलन का नोटिस लिया।
लौटते समय सतवीर ने कहा– कैसी रही? हुई न वही बात; चोर की जूती, चोर की गंज।
मेरा चेहरा उतरा हुआ था। सिर खुजलाते हुए मैं बड़बड़ाया– चोर की जूती, लेकिन गंज किसकी?
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