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लघुकथाएँ - संचयन - प्रद्युम्न भल्ला
भगवान का घर
उस कालोनी में केबल का ठेका था किशने के पास। छोटी सी कालोनी थी वह घूमता रहता था सारा दिन। उस दिन सुबह निकला मंदिर के पास से तो पुजारी जी बाहर ही बैठे धूप सेंक रहे थे। उनका परिवार भी भीतर ही रहता था।
‘‘पांय लागूँ दादा....
‘‘आ भई किशना किधर सुबह सुबह.....’
‘‘बस एक घर में केबल लगाना था.....’’
‘‘अरे हाँ...केबल से याद आया भाई केबल तो मंदिर में भी लगाना था...’’
‘‘क्यों नहीं दादा?
क्या लोगे
‘‘यही दो सौ बीस रुपए.....’’
‘‘हमसे क्या लोगे’’
आप बीस कम दे देना...बीस मै डाल दूँगा भगवान के नाम से...किशना ने सहजता से कहा।
अरे भगवान का घर है ये ।यहाँ तो मुफ्त ही लगा दो न?
‘‘..तो क्या भगवान देखने आएँगे दादा?....’’ और चढ़ावा क्या आप भगवान को देते हैं? उसके मुँह से निकल गया।
कहकर वह रुका नहीं ।पुजारी उसे पुकारता ही रह गया....
बेचारा भगवान....किशना ने सोचा।
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