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लघुकथाएँ - संचयन - प्रद्युम्न भल्ला
अपने पराये
‘‘सुनो जी, सो गए क्या?’’ पत्नी ने करवट बदलते हुए पूछा
–नहीं, नींद नहीं आ रही।
–सोचती हूँ आपने आज अच्छा नहीं किया, वे लड़के जो मकान किराये पर लेने आए थे; उन्हें इंकार कर दिया। वे अच्छे घरों से लग रहे थे।
–बिट्टू की माँ,तुम नहीं जानती हो ये शोहदे, बदमाश,छँटे हुए लड़के होते हैं, आवारागर्द कहीं के.....पति की आवाज में क्रोध उभर आया।
पत्नी ने चुप ही रहना बेहतर समझा। पति की हालत वह जानती थी, वे बहुत जल्दी आवेश में आ जाते थे। मकान न चढ़ने से परेशान थे।
बिट्टू का कोई फोन आया क्या? थोड़ी देर में बोले, जानता था लड़का अपनी माँ को फोन करता है। पिता से तो हाँ, हूँ में ही बात करता था।
हाँ कह रहा था कमरा नहीं मिल रहा। जहाँ भी जाता है लोग इंकार कर देते है....लफंगा।
हूँ ह कह कर पति शून्य में ताकने लगा। सुबह उठते ही बोले.....
बिट्टू की माँ....चाहो तो उन लड़कों को बुला लेना जरूरतमंद लग रहे थे मुझे वे.....और रसोई की तरफ बढ़ते–बढ़ते पत्नी के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई।
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