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लघुकथाएँ - संचयन - प्रद्युम्न भल्ला
माँ का शहर
गर्मी की छुट्टियाँ उसके लिए विशेष महत्त्व रखती थीं। वह हर छुट्टियों में अपने मामा के यहाँ चला आता था। मामा उसे घुमाते–फिराते, सैर–सपाटा करवाते, उसकी पसंद की चीजें भी लेकर देते थे। वह आँगन में बैठा सोच रहा था, पिछले बरसों को।
अब वह बड़ा हो गया था। फिर भी मामा के यहाँ जाना नहीं छूटा। उस शहर की एक दुकान पर बनी चाट–पापड़ी उसे बेहद पसंद थी। वह हर बार चाट पापड़ी खाने की जिद जरूर करता और दो प्लेट ही खाता। दुकान वाला उसे दो प्लेट ही देता।
इस बार मामा नहीं थे घर पर छुट्टियों में ।मगरववह चाट पापड़ी का मोह नहीं छोड़ पाया दुकान पर पहुँचा,अभिवादन किया, दुकानदार ने सदा की तरह दो प्लेट ही दी। मामा के बारे में पूछा, परिवार के बारे में पूछा। जब वह पैसे देने पर एक प्लेट के ही पैसे लिये। उसे समझ नहीं आया तो पूछ बैठा आपने कम पैसे काटे हैं।
‘‘नहीं बेटे, एक ही प्लेट के पैसे लूँगा।’’
‘‘दूसरी के क्यों नहीं’’।
तुम्हारी माँ हमारे शहर की है अत: मेरी बहन हुई, एक प्लेट हर बार उसी के कारण तुम्हे फ़्री मिलती है।
कैसा था माँ का शहर और उस शहर का वह व्यक्ति....
वह अकसर सोचता है।
दूर कहीं से हवा का सुगन्धित झोंका उसके आँगन में आ गया जैसे।
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