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लघुकथाएँ - संचयन - सैली बलजीत
आज का देवता
ट्रांसफर रुकवाने के सभी प्रयास टूट गए थे। पत्नी–तांत्रिकों–पंडितों की दहलीजें घिस चुकी थी। शहर के नामी पंडित ने एक अनुष्ठान का मशविरा दिया तो वह भन्ना उठा था। लेकिन पत्नी के इसरार ने उसे मना लिया था। सारी सूची के अनुसार,अनुष्ठान हेतु लगभग आठ–दस हजार का खर्च बैठ रहा था।
वह तिलमिलाया था, ‘‘एकाएक इतनी बड़ी रकम कैसे निकालें!’’
पत्नी ने कहा था, ‘‘कुछ नहीं होता......देखना, रूठे हुए सारे ग्रह किस तरह ‘लाइन’ में आते हैं......?’’
‘‘कुछ नहीं होगा देख लेना......फिजूल में इतने पैसे बर्बाद कर रहे हैं....जब किस्मत ही खराब है तो इन चीजों से क्या होगा?’’
‘‘तभी तो यह सब करवा रहे हैं......ग्रहों को खुश करना पडता है....आप बस करवाने के लिए तैयार रहें.....कोई भूल हो गई है हमसे, तभी तो सब कुछ उलट–पलट हो रहा है....ठीक कहा?’’
‘‘मैं तो कहता हूँ....कुछ नहीं होगा....’’
‘‘आप इन बातों पर विश्वास करने लगेंगे ,जब काम हो जाएगा.....देख लेना।’’
‘‘क्या काम होगा.....किस्मत ही खराब है।’’
‘‘शुभ–शुभ बोलिए...देवी–देवताओं को मनाना आसान काम नहीं।’’
‘‘इतने पैसों से तो ये दफ्तरों को....?’’ पत्नी ने गुस्से से कहा था।
वह भन्ना उठा था। उसके पास पत्नी की इस बात का कोई उत्तर नहीं था।
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