अस्पताल के मुर्दाघर के सामने बैठे उसे लगभग चौबीस घण्टे हो चले थे। उसके बाप की ‘डेथ’ कल ही किसी एक्सीडेंट में हुई थी। तब से ही वह यंत्रणा के खुरदरे पहाड़ तले पिस रहा है। कभी पुलिस वालों की तो कभी अस्पताल वालों की मिन्नतें करते वह थक गया है, लेकिन अभी तक पोस्टमार्टम की औपचारिकता पूरी नहीं हो पाई।
‘‘कुछ करिएगा....कल से यहाँ पड़े हैं....’’ उसने अस्पताल के किसी कर्मचारी से याचना की थी।
‘‘मैं क्या करूँ... बड़े डाक्टर साब छुट्टी पर है।’’ उस कर्मचारी ने कन्धे उचका दिए थे।
उसने फिर गुहार की थी, ‘‘तो कोई दूसरा जना तो होगा ही ना....’’
‘‘मुझे नहीं पता....वहाँ जाकर बैठो, रूटीन में सब हो जाएगा।’’
‘‘क्या रूटीन है आपका....कल से धक्के खा रहे हैं, लेडिज़स का देखें क्या हाल हो गया है....रोते रोते।’’
‘‘उन्हें चुप कराना मेरा काम तो नही ना?’’
‘‘पुलिस वाले क्या कहते हैं।’’
‘‘वे लोग भी कानून की पोथी खोले हुए हैं....’’
‘‘मैं क्या करूँ फिर?’’
‘‘आप कुछ करिए......निपटा दें आज....संस्कार करने वाले बनें हम....’’
‘‘देख ओए.....कागज़ी कार्रवाई के बिना कुछ नहीं कर सकते.....समझा....हमारा सिर ना खा....चल बैठ जाकर।’’
दूसरा दिन भी बीत चला था।
बड़ी मुश्किल से शाम तक पोस्ट मार्टम हुआ था। ‘डेड बॉडी’ बाहर लाई गई तो एक साथ कई जनें झपटती गिद्धों की तरह मँडराने लगे....जिसमें पुलिस वाले.....वार्ड ब्वाय चौकीदार....सभी थे।
‘डेड बॉडी’ को को लगभग कसकर पकड़े हुए ‘वार्ड बॉय’ बोला था, ‘‘हमारी लाग बनती है....दो दिनों से इस ‘बुड्डे’ की लाश की सड़ांध झेल रहे हैं।’’
एक पुलिसकर्मी बोला था, ‘‘छोड़ ओए....क्या समझाता है तू...बाऊ बड़ा अच्छा है....जाते वक्त, सभी को खुश करके जाएगा.....क्या समझ रखा है बाऊ को....भुक्खा नंगा?’’
उसने महसूस किया था कि जैसे वह बेटे की बारात लेकर आया हुआ है और ‘लागी’ उसकी जान खा रहे हैं।
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