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लघुकथाएँ - संचयन - सैली बलजीत
सबक
उसने जब कभी भी बच्चों के नंगे जिस्म देखे हैं, उसके लिए गरीब होने का अहसास और पुख्ता हुआ है। कई बार वह अपने बच्चों के जिस्म पर कपड़ों की कल्पना करते हार गया है।
गर्मियों में उसने इसी झोपड़ी में पूरी रात भर झुलसा देने वाली गर्मी में करवटें लेटे हुए बिताई है। जाड़े में तो वह तौबा कर लेता है ।बच्चों को कसकर छाती पर चिपकाए हुए चिन्दी–चिन्दी कंबल में सरसराती हवा लाख चाहते हुए भी नहीं रुक पाती। ऐसे में उसे अपनी किस्मत पर रोना आता है।
उसकी झोपड़ी के ठीक बगल में सिर उठाए आसमान को छूती इमारतों में बसे हुए लोगों को देखकर जलन होती है। लेकिन नज़र भर देखकर पिच से ज़मीन पर थूकने से समस्या का हल तो नहीं निकल आता।
सवेरे ही उसने इस चिलचिलाती हुई धूप को घूर कर देखा तो मन में तरबूज खाने का सपना पुख्ता कर डाला।
तरबूज को चाकू से काटते हुए उसने सभी के हिस्से अलग–अलग रख दिए।
‘‘बापू वो देख, हमारे खाकर फेंके हुए छिलकों को कोई छोकरा खा रहा है।’’ कल्लू ने बापू को चेताया।
‘‘झूठ क्यों बोलता है?’’ बापू ने इधर–उधर देखते हुए कहा।
‘‘नहीं तो....वो रहा.....देख तो....सच्ची कै रहा हूँ बापू।’’ कल्लू ने फिर कहा।
‘‘वाह....क्या बात है, हमसे नीचे की लाइन में लोग रहते हैं, हद्द हो गई। हमसे गरीब भी हैं इस दुनिया में?’’ वह विस्मित हो गया।
‘‘बेटे मेरी तो आँखें खुल गई आज, हमें अपने से नीचे वालों को देखकर जीना चाहिए–ऊपर वालों को देखकर भला हम जी सकते हैं कभी? बहुत बड़ा सबक दे गया है, यह हमारे जूठे छिलके खाने वाला छोकरा।’’ उसने इत्मीनान की सांस ली थी।
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