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लघुकथाएँ - संचयन - सैली बलजीत
भय

वह पिछले कई दिनों से सो नहीं पाया था।
रातों में हड़बड़ा कर उठ बैठना नियमित क्रम था उसका।
उसे सेवानिवृत हुए लगभग पन्द्रह साल हो गए हैं। पिछले जाड़े में उसकगे तीन साथियों को मौत के झपट्टा मार निगल लिया है। अब वह मौत से भय खाने की स्थिति में आ गया है।
दूसरी सुबह वह उठा तो पत्नी ने दिल दहला देने वाला समाचार जब उसे सुनाया तो वह दहल उठा था।
‘‘सुना आपने, ईश्वर नगर वाले वर्मा साहब नहीं रहे....।’’ पत्नी ने उदास हुए कहा था।
‘‘किसने बताया?’’ वह भय से काँप उठा था।
‘‘पडोस वाली चन्द्राणी ने कहा है।’’
‘‘हुआ क्या था उन्हें?’’ वह भयभीत हो उठा था।
‘‘हार्ट अटैक...अभी अच्छे–भले थे वे.....भगवान के आगे चलती है किसी की....?’’
‘‘बहुत बुरा हुआ यह तो....’’ वह एकाएक उदास हो उठा था।
‘‘चलें उठिए....अब ज्यादा सेाचना मत....ऐसे ही लिखी थी उनकी..’’
‘‘अभी परसों ही मिले थे पार्क में....उन्हें क्या पता था....’’
‘‘कहा ना, आप क्यों चिंता करते हैं....’’
‘‘चिन्ता क्यों न करूँ....? मेरे सभी साथी एक–एक करके बिछुड़ रहे हैं.....अब मेरी भी बारी आने वाली है....मौत से भला कोई बचा है?’’
‘‘शुभ–शुभ सोचिए जी....ऐसा क्यों सोचते हैं?’’
‘‘सच्चाई है यह...फिर सच्चाई से मुँह क्यों मोड़ना....?’’
‘‘तभी तो कहती हूँ....फिजूल मत सोचें...’’
‘‘नहीं सोचूँगा...बस...?’’ इतना कहते हुए वह बुक्का फाड़ रुलाई में डूब गया था। उसकी आँखों में अपने साथी वर्मा का चेहरा तैर आया था।

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