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लघुकथाएँ - संचयन - प्रेम जनमेजय
चिड़िया की आँख
वे पाँचों नए संसद–सदस्य थे। द्रोणाचार्य मंत्री पद पर बैठे उन्हें सत्ता की राजनीतिक शिक्षा दे रहे थे।
संसद–सदस्य बन जाने के बाद अब तुम क्या देख रहे हो? द्रोणाचार्य ने गुरु–प्रश्न किया।
मुझे वह उतना दिखाई दे रही है जिसने मुझे वोट दिया और जिससे मैंने वायदे किए हैं, आश्वासन दिए हैं। सांसद–शिष्य बोला।
मूर्ख, और तुम्हें?
मुझे यह सुन्दर संसद भवन दिखाई दे रहा है जहाँ पहुँचकर जनता की माँगों का शोर कानों तक नहीं पहुँच पाता है। कितनी शांति है यहाँ।
भोला है। तुम्हें?
मुझे आप, आपकी कुरसी ओर आपके चारों ओर भक्ति–भाव से बैठे हुए, मुझ जैसे अनेक प्राणी दिखाई दे रहे हैं, आप और आपकी चरणधूलि धन्य है।
हुम्म......तुम्हें?
मुझे तो केवल आप और आपकी यह अनश्वर कुरसी दिखाई दे रही है?
अच्छा है....और तुम्हें प्रिय अर्जुन?
गुरुदेव, मुझे केवल यह मंत्री पद दिखाई दे रहा है।
साधु!साधु! यह कहकर गुरुदेव आसन से उठकर अर्जुन की पीठ थपथपाने लगे।
अर्जुन ने सुअवसर देख चरण–वंदना के बहाने से द्रोणाचार्य की अड़ंगी दे मारी, गुरुदेव चारों खाने चित थे।
तीर चिड़िया की आँख की बेंध गया था।
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