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लघुकथाएँ - संचयन - प्रेम जनमेजय
आदमी के बच्चे
तुम कौन हो?
रामू।
रामू तुम्हारा भी नाम होता है क्या? पापा तो तुम लोगों को सिर्फ़ गरीब कहते हैं। मेरे पापा कहते हैं गरीब लोग गंदे रहते हैं। तुमने इतने गंदे कपड़े क्यों पहने हैं?
पैसे नहीं है।
तुम नहाते भी नहीं हो क्या? हमारा तो टामी भी रोज नहाता है, उसे हमारी आया नहलाती है, मुझे भी वही नहलाती है। तुम्हारी आया नहीं नहलाती?
आया! आया कौन?
वो जो घर का सारा काम करती है....नौकरानी! तुम्हारे यहाँ नौकरानी नहीं है क्या?
है,मेरी माँ नौकरानी है....वो ही घर का सारा काम करती है। दूसरों के घर में भी काम करती है।
तुम सारा दिन कैसे खेलते हो? तुम्हारे यहाँ ट्यूटर नहीं आता है क्या? होमवर्क नहीं करना पड़ता क्या?
नहीं बापू के पास स्कूल भेजने के लिए पैसे नहीं हैं। टोली, कालू, गोली,रमती–कोई भी स्कूल नहीं जाता है । बड़े होकर हमें मजूर जो बनना है। बापू कहते हैं, मजूर बनने के लिए पढ़ना नहीं होता है। बस बड़ा होना होता है।
पापा मुझे तुम्हारे साथ खेलने को सख्त मना करते हैं। कहते हैं तुम लोग गटर में पलने वाले कीड़े हो। पर तुम तो मेरे जैसे लगते हो, बस, गंदे कपड़े पहनते हो। हमारी टीचर कहती हैं, आदमी का खून लाल होता है, तुम्हारा भी है क्या?
हाँ, देखो। और उसने अभी–अभी खेल में लगी चोट से रिसता खून का रंग दिखा दिया।
अरे! तुम्हें तो चोट लगी है, जल्दी डिटॉल से साफ कर लो, डॉक्टर से टिटनेस का टीका लगवा लो, नहीं तो सैप्टिक हो जाएगा।
कुछ नहीं होगा, ऐसे तो रोज लगती रहती है।
तुम तो बहुत बहादुर हो। मुझे पापा से बहुत डर लगता है। वो मुझे हरदम पढ़ने को कहते हैं, घर के अंदर खेलने को कहते हैं। बाहर नहीं जाने देते हैं। पापा जितना बड़ा होकर मैं तुम्हारे साथ खेलने बाहर आ सकूँगा।
नहीं, तब भी तुम नहीं आ सकोगे।
क्यों?
तब तुम पापा बन जाओगे।
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