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लघुकथाएँ - संचयन - काशीनाथ सिंह
अकाल
यह वाकया दुद्वी तहसील के परिवार का है। पिछले रोज दिनों से गायब मर्द पिनपिनाया हुआ घर आता है और दरवाजे से आवाज देता है। अंदर से पैर घसीटती हुई उसकी औरत निकालती है। मर्द अपनी धोती की मुर्रा से दस रुपए का एक मुड़ा–तुड़ा नोट निकालता है और औरत के हाथ पर रखकर बोलता है कि जब वह शाम को लौटे तो उसे खाना मिलना चाहिए।
औरत चिंतित होकर पूछती है, ‘‘अनाज कहाँ है?’’
‘‘जहन्नुम में।’’ मर्द डपटकर कहता है और बाहर निकल जाता है। औरत नोट को गौर से देखती है और जतन से ताख पर रख देती है। वह अपने चार साल के लड़के को, जो खेलते–खेलते सो गया है, जगाती है और कहती है, ‘‘तुम घर देखो, मैं अभी आ रही हूँ।’’ लड़का आँख मलता है और वह उसे लौटकर अपने साथ बाजार ले चलने का लालच देती है। लड़का चुपचाप माँ को देखता रहता है।
औरत कटकटाए बर्तनों को उठाती है और माँजने के लिए बाहर चली जाती है।
वह चटपट बर्तन माँजकर घर आती है और चौखट पर पहुँचकर दंग रह जाती है। नीचे जमीन पर नोट के टुकड़े पड़े हैं। वह बर्तन फेंककर ताख के पास जाती है–नोट नदारद। लड़का खटिया पर जस का तस लेटा है। वह गुस्से में है और मुँह फुलाए है।
वह लड़के को खींचकर मारना शुरू करती है और थक जाती है तो रोने लगती है।
शाम को मर्द आता है और चौके में पीढ़े पर बैठ जाता है। वह औरत को आवाज देा है कि तुरंत खाना दो।
औरत आँगन में बैठे–बैठे बताती है कि वह वह बर्तन मलने गई थी, लड़के ने नोट को फाड़ दिया था।
मर्द अपनी सूखी जाँघ पर एक मुक्का मारता है और उठ खड़ा होता है। वह लपककर चूल्हे के पास से हँसुआ उठाता है और आँगन में खड़ा होकर चिल्लाता है,‘‘अगर कोई मेरे पास आया तो उसे कच्चा खा जाऊँगा!’’
उसका मुँह अपनी औरत की ओर है।
औरत बिना उसे देखे–सुने बैठी रहती है।
मर्द झपट्टा मारकर लड़के को उठाता है और उसपर चढ़ जाता बैठता है। फिर हँसुआ को झंडे की तरह तानकर औरत को ललकारता है,
‘‘कच्चा खा जाऊँगा।’’
औरत उसकी ओर कतई नहीं देखती।
मर्द लड़के के गले पर हँसुआ दबाता है और गुस्से में काँखता है, ‘‘साले, तुझे हलाल करके छोड़ूँगा।’’ औा वह अपने होठ भींच लेता है।
लड़का, जो बिना चीखे–चिल्लाए–रोए उसके घुटनों के बीच दबा है, किसी तरह साँस लेता है, ‘‘ओह, ऐसे नहीं, धीरे–धीरे....।’’
औरत पुलिस दूसरी सुबह नियमानुसार मर्द के साथ अपना फर्ज पूरा करती है।
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