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लघुकथाएँ - संचयन - काशीनाथ सिंह
पानी
पुलिस को खबर दी जाती है कि सात दिनों से भूखा निठोलहर कुएँ में कूद गया है। और वह बाहर नहीं आ रहा है।
‘‘इसमें परेशानी क्या है?’’ पुलिस पूछती है।
‘‘हुजूर, वह मरना चाहता है।’’
‘‘अगर वह यही चाहता है तो हम क्या कर सकते हैं?’’ पुलिस फिर कहती है और समझाती है कि वे उसके लिए मर जाने के बाद ही कुछ कर सकते हैं, इसके पहले नहीं। उन्हें इसके लिए ‘फायर ब्रिगेड’ दफ्तर को खबर करनी चाहिए।
खबर करने वाले चिंतित होते हैं और खड़े रहते हैं।
‘‘साहेब, वह कुएँ में मर गया तो हम पानी कहाँ से पिएँगे?’’ उनमें से एक आदमी हिम्मत के साथ कहता है।
‘‘क्यों?’’
‘‘एक ही कुआँ है।’’ वह संकोच के साथ धीरे से कहता है।
दूसरा आदमी बात और साफ करता है, ‘‘उस कुएँ को छोड़ पानी के लिए हमें तीन कोस दूर दूसरे गाँव जाना पड़ेगा।’’
काफी सोच–विचार के बाद दो सिपाही कुएँ पर आते हैं। वे झाँककर देखते हैं–पानी बहुत नीचे चला गया है और वहाँ अँधेरा दिखाई पड़ रहा है। पानी की सतह के ऊपर एक किनारे बरोह पकड़े हुए निठोहर बैठा है, नंगा और काला। सिपाही होली का मजा किरकिरा करने के लिए उन्हें गालियाँ देते हैं और डोर लाने के लिए कहते हैं।
डोर लाई जाती है और कुएँ में ढील दी जाती है। सिपाही अलग–अलग और एक साथ चिल्लाकर निठोहर से रस्सी पकड़ने के लिए कहते है। रस्सी निठोहर के सामने हिलती रहती हैं, और वह चुपचाप बैठा रहता है।
सिपाही उसे डाँटते हैं, ‘‘बाहर आना हो तो डोर पकड़ो।’’;
काफी हो–हल्ला के बाद निठोहर अपनी आँखें डोर के सहारे ऊपर करता है, फिर सिर झुका लेता है।
‘‘वह डोर क्यों नहीं पकड़ रहा है?’’ एक सिपाही बस्ती वालों से पूछता है।
बस्तीवाले बताते हैं कि क्या डोर पकड़ने के नहीं, मरने के इरादे से अंदर गए है। वह भूख से तंग आ चुका है।वे उनके निठोहर के लिए रोटी हो जाएँ? हो तो उसे कोई रोक नहीं सकता, लेकिन वह कम से कम आज नहीं मर सकता। आज होली है और यह गलत है।
सिपाही मसखरी करते हैं कि क्या वे उनके निठोहर के लिए रोटी हो जाएँ? हो तो उसे कोई रोक नहीं सकता, लेकिन वह कम से कम आज नहीं मर सकता। आज होली है और यह गलत है।
‘‘हाँ, वह किसी दूसरे दिन मर सकता है, जब हम न रहें।’’ दूसरा सिपाही बोलता है।
जवाब में निठोहर के होठ हिलते हुए मालूम होते हैं, लेकिन आवाज नहीं सुन पड़ती।
‘‘क्या बोलता है?’’ एक सिपाही पूछता है।
‘‘मुँह चिढ़ा रहा है।’’ दूसरा कहता है।
‘‘नहीं, वह गालियाँ दे रहा होगा, बड़ा गुस्सैल है।’’ दूसरी तरफ से अंदर झांकता हुआ एक आदमी कहता है।
‘‘गालियाँ? खींच लो। तुम सब खींच लो डोर और साले को मर जाने दो!’’ बाहर डोर पकड़े हुए बस्तीवालों पर एक सिपाही चीखता है।
बस्तीवालों पर उसकी चीख का कोई असर नहीं पड़ता।
‘‘जाने दो। गाली ही दे रहा है, गा तो नहीं रहा है।’’ उसका साथी फिर मसखरी करता है और हो–हो करके हँसता है।
‘‘अच्छा, ठीक है, बाहर जाने दो।’’ सिपाही खुद को शांत करता है।
डोर ऊपर खींच ली जाती है और उसे बहार निकालने के लिए तरह–तरह के सुझाव आने लगते हैं। तय पाया जाता है कि वह भूखा है और रोटियाँ देखकर ऊपर आ जाएगा। लेकिन सवाल पैदा होता है कि रोटियाँ कहाँ से आएँ? अगर रोटियाँ होतीं तेा वह कुएँ में क्यों बैठता? फिर बात इस पर भी आती है कि उसे कहीं से चारा दिखाया जाए। मुलायम और नरम पत्तियाँ।
‘‘क्यों, तुम सब उसे पाड़ा समझते हो?’’ नाराज सिपाही पूछता है और अपना थलथल शरीर हँसी से दहकाने लगता है।
अंत में तय होता है कि कोई आदमी निकट के बाजार में चला जाए और वहाँ से कुछ भी ले आए।घंटे बाद पाव–भर सत्तू आता है। सिपाही पूरी बुद्धि के साथ एक गगरे में सत्तू घोलकर निठोहर के आगे ढील देते हैं। वह गगरे को हाथों में लेकर हिलाता है, उसमें झांकता है, सूँघता है। फिर से साँस में पी जाता है।
खाली गगरा फिर झूलने लगता है और ऊपर हँसी होती है।
‘‘अच्छा बनाया उसने।’’ एक सिपाही कहता है।
‘‘अब तो वह और भी बाहर नहीं आएगा।’’ बस्ती का एक आदमी उदास होकर कहता है।
‘‘हाँ–हाँ, रुको। घबड़ाओ नहीं।’ थलथल सिपाही अंदर झाँकता हुआ हाथ उठाकर चिल्लाता है।
दूसरे भी झाँकते है।
निठोहर ने गगरा छिटकाकर पानी पर फेंक दिया है और फंदा अपने गले में डाल लिया है।
‘‘उसने फंदा पकड़ लिया है।’’ पहला सिपाही चिल्लाता है।
‘‘खींचो, मैं कहता हूँ,खींचो साले को।’’ दूसरा चीखता है और निठोहर खींच लिया जाता है। उसकी उंगलियाँ फंदे पर कस गई हैं। जीभ और आंखें बाहर निकल आई हैं और टाँगें किसी मरे मेढक–सी तन गई हैं।
सिपाहियों को करतब दिखाने का जरिया मिलता है और बस्तीवालों को पानी।
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