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लघुकथाएँ - संचयन - कृष्णशंकर भटनागर
रिश्ते
‘‘बोल, कितने पैसे लेगी?’’
‘‘देख बाबू, मुझे ऐसी वैसी मत समझियो....मेरा यह धंधा–पेशा नहीं हैं....मेरा बच्चा बीमार है, इसी से.....।’’
‘‘चल–चल, तेरे जैसी सब ऐसी ही कहती हैं।’’
‘‘मतलब की बात कर...तू क्या देगा? कहाँ ले जाएगा...?’’
अभी दोनों के बीच व्यापारिक–समझौता चल ही रहा था कि एक कर्मठ पुलिस कांस्टबेल आ धमका। डंडे को जमीन पर मारकर पूछा, ‘‘क्यों बे, यह क्या हो रहा है?’’
‘‘जी....जी...’’ युवक सहमकर रह गया।
‘‘अबे...जी...जी....अब क्या कर रहा है...शहर को चकला बना रखा है सालों ने...’’ कांस्टेबल ने घुड़ककर कहा।
‘‘चकला....? क्या कहते हैं सा’ब....यह तो हमारी बहन है....!’’
‘‘बहन है...हूँ आपणी भाण नू पैसे दे रिआ है....।’’
‘‘वो क्या है–हवलदार सा’ब पिछली राखी पर पैसे न भेज सका था.....अभी–अभी गाँव से आई है बेचारी...इसलिए अब दे रहा था...!’’युवक ने तर्क प्रस्तुत किया।
‘‘देख बहन है तेरी, इसी से छोड़ रहा हूँ.....’’ कहते हुए कांस्टेबल आगे बढ़ गया।
‘‘देखा, क्या गच्चा दिया.....’’ युवक ने अपनी बुद्धिमानी का प्रदर्शन करते हुए पुन: पूछा, ‘‘अब बोल, कितने लेगी?’’
युवक की ओर घृणा से देखकर उसने जमीन पर थूककर कहा, ‘‘निर्लज्ज, पानी में डूब मर कहीं जाकर....अपनी बहन के साथ कुकर्म करेगा...।’’
और वह आगे बढ़ गई।
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