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लघुकथाएँ - संचयन - दीपक मशाल
मूर्त्ति
एक तो उसके पिता जी के वकालत के दिनों में ही घर की माली हालत ठीक नहीं थी, तिस पर अचानक हुई उस दुर्घटना ने गरीबी में आटा गीला करने का काम किया। घर-गहने बिका देने वाले इलाज़ ने किसी तरह पिता जी की जान तो बचा ली गई लेकिन उनकी रीढ़ की हड्डी टूटने ने ना सिर्फ उन्हें बल्कि घर की अर्थव्यवस्था को ही अपाहिज बना दिया। खेलने-खाने के दिनों में जब उसने सिर पर घर के छः सदस्यों की जिम्मेवारी को महसूस किया तो गेंद-बल्ला सब भूल गया। पढ़ाई के साथ-साथ ही कुछ काम करने के बारे में सोचा। वामन पुत्र था और देखने-सुनने में भी ठीक था सो ज्यादा भाग-दौड़ न करनी पड़ी, कस्बे की प्रमुख रामलीला में राम की मूर्ति (पात्र) के लिए उसका चयन हो गया। वह खुश था कि चलो कुछ दिनों के लिए तो गुज़ारे का प्रबंध हो गया।
महीने भर की रामलीला में उसने आगे के कुछ महीनों के लिए बचत कर ली। ऊपर से रामलीला समिति ने रामलीला के दौरान उसके द्वारा पहना गया चांदी का मुकुट भी उसे उपहार में दे दिया। पर अगले महीनों में कुछ और काम न मिला। किस्मत की बात कि उसके मोहल्ले में होने वाली एक दूसरी छोटी रामलीला के लिए भी उसके पास राम बनने का प्रस्ताव आया। उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
जब यह खबर प्रमुख रामलीला के आयोजकों तक पहुँची तो यह उन्हें नागवार गुज़रा। आयोजन समिति के महामंत्री ने आकर उसे समझाया
- देखो नासमझी मत दिखाओ, आप एक बार चांदी में पुज चुके हो अब गिलट(के मुकुट) में कैसे पुज सकते हो भला? यह हमारी नाक का सवाल है, उनकी पेशगी लौटा दो, वो कोई नया लड़का ढूँढ़ लेंगे।
- मगर मैं इस स्थिति में नहीं कि इस प्रस्ताव को नकार सकूँ। यह मेरे पूरे परिवार के पेट का भी सवाल है।
- मुझे समिति ने जो कहने को कहा था सो मैंने कह दिया, इतना बताए देता हूँ कि यहाँ मूर्ति बन गए तो अगली बार हमारे यहाँ दोबारा मौका नहीं मिलेगा। अच्छे से सोच-विचार कर लो। अब चलता हूँ, जय सियाराम।
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