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लघुकथाएँ - संचयन - दीपक मशाल
गणित
'अरे बैठिए सचिव सा'ब, खड़े मत रहिए । कुर्सी आगे खींच लीजिए मैं दो मिनट में मुखातिब होता हूँ आपसे.... अरे नहीं.. नहीं आपसे नहीं कह रहा, आपसे तो बात कर ही रहा हूँ, फोन ही इसीलिए लगाया है.... हाँ बिलकुल निश्चिन्त रहिए, आपने कहा है तो काम हो ही जाएगा। ठीक अच्छा, भाभी जी को प्रणाम कहिएगा। नमस्ते.. नमस्ते।'' बात ख़त्म होते ही मन्त्री महोदय ने फोन वापस चोगे से टिका दिया।
''जी मंत्री जी, आपने याद किया था मुझे?'' अफसर ने एक भी पल गँवाए बिना पूछा।
''हाँ जी, क्यों पीछे पड़े हैं आप मेरे सिंह साहब? चैन से रहिए और रहने दीजिए भाई।''
''पर मैंने किया क्या है सर, आप बताइए तो..'' दोनों हाथों की कुहनियों को टेबल पर टिकाते हुए अफसर ने हैरानी जताई।
''ऐसा तो है नहीं कि आपसे कुछ छुपा हो। कितने साल घिसने के बाद अब जाकर मंत्री बना हूँ, जानते तो होंगे आप, जानते हैं न?''
''हूँ''
''फिर किसलिए पहला मौका ही खराब कर रहे हैं आप मेरा? अभी मौसम चल रहा है तबादलों का सो मैंने भी कुछ सैकड़ा मास्टरों के तबादले कर दिए। अब देखिए किसी दूर-दराज के गाँव के स्कूल में उसी क्षेत्र या आस-पास के क्षेत्र के मास्टर को लगाने पर तो कोई वापस नहीं आता तबादले के लिए रिरियाने। आप सालों से सब जानते हैं कि लोग तबादले कराने तभी आते हैं जब उन्हें चार जनपद छोड़कर या सड़क से कटे गाँवों में नियुक्त कर दिया जाए। इस सब पर इतना दिमाग लगाने के बाद मैंने जो सूची बनवाई थी आप उसमे भी फेर-बदल पर लगे हैं।'' मंत्री जी ने एक साँस में सारी तकलीफ कह डाली।
''मगर मंत्री जी आप गलत समझ रहे हैं, मैंने सिर्फ दो बदलाव किए हैं, जिनमें से एक आपके फायदे के लिए ही है। जिस रामशरण को आप तीन जनपद दूर भेजने की सोच रहे हैं, वह असल में जाना ही वहीं चाहता है, पहले भी अर्जी लगा चुका है। अपने शहर में उसकी अपने खानदान वालों से नहीं बनती। उसका तबादला अगली सूची में करेंगे तो आपका ही फायदा है।''
मंत्री जी अपने अफसर के गणित से प्रभावित हुए और मुस्कुरा कर इतना ही बोले, ''मैं अब निश्चिन्त हूँ, आप जैसा चाहें बदलाव करें..''
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