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लघुकथाएँ - संचयन - दीपक मशाल
जन-सेवक
सेवा समिति के लोग घर के बाहर आ खड़े हुए और घर के प्रौढ़ सदस्य को भीतर भेज दिया गया। नतीजतन अन्दर से मनुहार की आवाजें आनी शुरू हो गई थीं।
''अब चलिए भी दद्दा, दस-पंद्रह मिनट की तो बात है''
''अरे का बात करते हो बेटा, तुम सबको पता है कि इस बुढापे में मुझसे चला भी नहीं जाता''
''उसकी चिंता आप मत करो, हम चार लोग आपको रिक्शा पे पोलिंग बूथ पहुँचा देंगे और वापस भी ले आएँगे''
''ना बेटा पिछले चुनाव में लोग ले तो बड़े साके सें गए थे लेकिन भेजवे की खबर कोउ कों न रइ थी और तुमऊ कों जाने का काम आ परो थो सो तुमऊ चले गए थे, फिर सबई तो लठैत खड़े हैं जा चुनाव में का फायदा वोट डारे को''
''ओ शंकरा, आजा भीतर तनिक डुकरा ऐंसे कोन मानेगो.... मनाएँ-मनाए धोबी गधा पे नईं चढ़त। अब माफ़ करियो दद्दा, आखि हमऊ खों भैया जू के एक साइकिल और दो अंग्रेज़ी खम्भन के बदले वोट तो तुमाओ दिलाने है।''
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