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लघुकथाएँ - संचयन - शैलेन्द्र सागर
हिदायत
पहली बार जब बालक विद्यालय गया तो माँ ने अध्यापक के संबंध में समझाया था,‘‘अध्यापक गुरु होते हैं?’’ माँ–बाप से भी बढ़कर। उनका पूरा सम्मान करना चाहिए।’’
‘‘गुरु क्यों होते हैं?’’बालक ने जिज्ञासा की।
‘‘क्योंकि वे परिश्रम करके हम सबको पढ़ाते हैं। अच्छे गुण,अच्छी बातें सिखाते है। अच्छे उपदेश देते हैं। कोई गलत कार्य नहीं करते। अच्छे व्यवहार का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।’’
बालक उत्सुकतावश टकटकी बाँधे सुनता रहा, ‘‘अध्यापक बच्चों से बहुत प्यार करते हैं। आज उनसे आशीर्वाद लेना मत भूलना....।’’ चलते समय माँ ने हिदायत दी। मन में असीम जिज्ञासाएँ एवं बालसुलभ कौतूहल लिए बालक कक्षा में बैठ गया।
कक्षा का समय आरंभ हो गया, किंतु अध्यापक महोदय का कहीं पता नहीं था। काफी समय बाद एक व्यक्ति चप्पलें सिटाते हुए कक्षा में आया और अध्यापक वाली कुर्सी में धँस गया।
शोर–शराबे का माहौल थम गया।
‘‘चलो बैठो...।’’ अध्यापक ने मेज पर अपने पैर फैला लिए।
‘‘चल, ओ लड़के, निकाल किताब...। इधर खड़े होकर ‘सूरज उगता’ वाला पाठ पढ़...। सहमा हुआ बालक उठा और एक ओर जाकर दबे स्वर में पाठ पढ़ने लगा–‘‘सूरज उगता, चिडि़याँ, बोलीं....।’’
‘‘अबे उल्लू, घर से भूखा आया है क्या? जोर–जोर से पढ़....’’ अध्यापक दहाड़े। बालक का स्वर बढ़ गया।
अध्यापक महोदय ने जेबसे बंडल निकालकर बीड़ी सुलगाई और आँखें बंद करके लंबे–लंबे कश खींचने लगे।
‘‘अबे, रुक क्यों गया....?’’ अचानक वह गरजे।
‘‘मास्टरजी, पाठ समाप्त...।’’ बालक का स्वर काँप गया।
‘‘तो पहाड़े याद करा इन्हें....।’’
‘‘जी मास्साहब...।’’
‘‘दो इकम दो, दो दूनी चार....।’’
पूरी कक्षा का स्वर उससे जुड़ गया।
अध्यापक महोदय ने आंखें पूरी तरह बंद कर लीं और कहीं खो–से गए। कुछ समय बाद छुट्टी की घंटी टनटनाई। शोर–शराबे के बीच अध्यापक एवं विद्यार्थिगण बाहर निकल पड़े। बालक को अचानक माँ की हिदायत याद आई। उसने तेजी से जाकर उस बालक के पाँव छू लिए, जो पाठ पढ़ा रहा था।

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