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लघुकथाएँ - संचयन - शैलेन्द्र सागर
बंदरबाँट
बंदरबाँट का अवसर मिलने पर बंदर अपनी बुद्धि, चातुर्य और कौशल पर अति प्रफुल्लित था। वह बिल्लियों के मध्य बैठ गया और तराजू के पलड़ों में रोटी के टुकड़े रखकर तौलने लगा।
जैसे ही एक ओर पलड़ा झुका और उसने झुके पलड़े की रोटी तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया कि लाल, क्रुद्ध व ललचाई आँखों से देख रहा जंगली सूअर आगे झपटा, ‘‘खबरदार, जो हाथ लगाया...। रोटी मेरे हवाले कर....।’’
‘‘क्यों भाई, रोटी हम दोनों की है...।’’ बिल्लियों ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की।
‘‘मैं तो सिर्फ़ बँटवारा कर रहा हूँ.।’’ बंदर ने रुआँसे स्वर में सफाई दी तो जंगली सूअर की आँखें और लाल हो गई, ‘‘रोटी किसकी है,कौन बाँट रहा है, मुझे इससे मतलब नहीं...। रोटी बीच में रख दो....। जो ले सके, ले लो...।’’
भयभीत सूअर ने आगे बढ़कर रोटियाँ झपट लीं और अहंकार एवं बल से गर्वित चेहरा ऊपर उठाए मुस्कराता हुआ आगे बढ़ गया।
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