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लघुकथाएँ - संचयन - मदन शर्मा
सिलसिला
हर शाम, हम सात–आठ मित्र उस छोटे से रेस्टोरेंट में बैठते, दो की चार बनाकर चाय पीते, सिगरेट फूँकते और समांतर या दलित साहित्य वाली बातें करते। रेस्टोरेण्ट का मालिक, जिसकी बड़ी–बड़ी मूँछें थीं, भला आदमी लगता था। वह चाय बहुत बढि़या बनाता था; किंतु उसकी एक बात बहुत अखरती थी। वह जरा -सी बात पर, मासूम चेहरे वाले अपने नौकर को थप्पड़ दे मारता और माँ–बहन की गालियाँ देने लगता।
हमने निर्णय ले लिया। रुपए इकट्ठे किए और उस नौकर को एक खोखा बनवा दिया और जगह भी दिला दी। अब वह स्वंय रेस्टोरेंट चलाने लगा।
अब हम हर शाम, इस नये रेस्टोरेंट में बैठते, चाय पीते ओर आम आदमी से जुड़ी बातों पर बहस करते।
धीरे–धीरे उसने खोखे की हालत सुधार ली और एक नौकर भी रख लिया। नौकर बूढ़ा था, मगर काम में माहिर था। चाय वह भी बहुत उम्दा बनाता था।
एक दिन बूढ़ा शायद बीमार था। हमारे लिए चाय लाते हुए वह मेज़ के कोने से टकराया और प्याले उसके हाथ से छूट गए। तभी एक करारा हाथ उसकी गर्दन पर पड़ा।
हमने ग़ौर किया। मारने वाले के चेहरे पर उगी बड़ी–बड़ी मूँछों के पीछे, उस पुरानी मासूमियत का एक भी निशान बाकी नहीं बचा था।
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