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लघुकथाएँ - संचयन - मदन शर्मा
प्रोग्राम
प्रत्याशी नेता देश के दुर्भाग्य एवं अपनी नि:स्वार्थ सेवा पर प्रकाश डाल रहे थे। दो व्यक्ति जो मेरे दायें बायें खड़े थे, मुझे बराबर कोहनियाँ मार रहे थे। मेरा काम, केवल इतना था कि मुझे धीरे–धीरे मच तक पहुँचना था और अवसर पाकर नेता जी की छाती में....
अवसर हाथ से निकला जा रहा था, जबकि जेबमें मौजूद ठंडे से चाकू के साथ मेरा हाथ बराबर टकरा रहा था। शरीर पसीने में लथपथ था। आँखों के आगे सभी कुछ धुँधलाया–सा जा रहा था। दो ही रास्ते थे–मैं बेहोश होकर गिर जाऊँ,अथवा मंच पर पहुँचकर...
पीछे से किसी ने हल्का -सा धक्का दिया। साथ ही दबी जबान में माँ की गाली। डरता, काँपता सँभलता और भीड़ से बचता हुआ, मैं मंच पर जा ही पहुँचा। लगा, नेता जी अपना भाषण निपटाने ही वाले हैं। दो मिनट और सब मामला चौपट।
समीप खड़े व्यक्ति ने कधे पर थपकी देकर साहस बढ़ाया। चाकू जेब से निकला, हाथ हवा में लहराया, तेज़ धार चमकी और....भीड़ सभी ओर से टूट पड़ी थी। चाँटें मुक्के,लातों और जूतों की मूसलाधार बारिश हो रही थी। महसूस हुआ, दम निकलने ही वाला है। पुलिस वालों ने भीड़ की मार से छुटकारा दिलाया। मुझे वे लोग हिफ़ाजत के साथ अपने साथ ले गए।
कुछ ही देर में नेता जी थाने में पहुँच गए और रुतबे और सहज स्वभाव का परिचय देकर उन्होंने मुझे मुक्त करा लिया। बाहर आकर उन्होंने सस्नेह पूछा,‘‘बहुत चोट तो नहीं आई?’’ मैंने नहीं में सिर हिलाया, तो पाँच सौ का नोट उन्होंने पर्स में से निकालकर मेरे हाथ पर रख दिया। चाहा, नोट लौटा दूँ। कहूँ इतनी मँहगाई में इस नोट से चार बच्चों वाले परिवार में क्या हो पाएगा। तभी वे बोले, ‘‘ज़रा जल्दी चलो, अगले प्रोग्राम का वक्त निकला जा रहा है।’’
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