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लघुकथाएँ - संचयन - मदन शर्मा
जलवा
उसे ईश्वर की सत्ता में तो विश्वास था, किंतु किसी मूर्ति के आगे शीश झुकाना स्वीकार न था। उसका कथन था....पत्थर तो केवल पत्थर का अंश मात्र है। इसमें ईश्वर कैसे हो सकता है? वह यदि इसके भीतर होता, तो समय पड़ने पर उठ खड़ा होकर, कम से कम अपनी रक्षा तो कर ही सकता था। अरे, इसके ऊपर तो कोई चूहा भी आकर पेशाब कर डालेगा। फिर इसकी पूजा–अर्चना किस लिए?
वह अच्छा वक्ता था। उसके शब्द जोशीले और बेहद प्रभावशाली थे। देखते ही देखते, उसके अनुयायियों की संख्या करोड़ों में जा पहुँची। फिर मूर्ति–भंजन कार्यक्रम आरंभ हो गया, जो लंबे अर्से तक, पूरे जोशोख़रोश से चला। लगने लगा, कुछ ही दिनों में पूरी धरती मूर्तिविहीन हो जाएगी।
एक दिन अचानक, नये धर्म का वह संस्थापक, भोजन में कोई उल्टी–सीधी चीज निगल गया, जिसके कारण उसके पेट में दर्द होने लगा। दवा देने के बावजूद, दर्द घटने के बजाय,बढ़ता ही चला जा रहा था। कोई भी चिकित्सा कारगर न हुई और मानवता का वह अवतार, अपने असंख्य अनुयायिायों को रेाता–बिलखता छोड़, असीम यात्रा पर निकल पड़ा।
उसके संसार से विदा होने के पश्चात् उसके श्रद्धालुओं ने उसकी शानदार समाधि बना दी, जिस पर सुबह शाम फूल–बताशे चढ़ने लगे और तबले की थाप और हारमोनियम के सुरों के साथ भजन- कीर्तन होना लगा। फिर उसी के नाम पर बड़े–बड़े उद्यानों का निर्माण शुरू हो गया और प्रत्येक नगर की सड़कों और चौराहों पर मूर्तिपूजा के उस घोर विरोधी की शक्ल से मिलती जुलती अनगिनत पाषाण–प्रतिमाएँ अपने जलवे बिखेरने लगीं।
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