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लघुकथाएँ - संचयन - माहेश्वर
गुरुजी
विश्वविद्यालय के कॉरिडोर में विपरीत दिशाओं से आते हुए दो व्यक्ति एक–दूसरे को देखकर ठहर गए। उनमें से एक हिंदी विभाग के अध्यापक थे और दूसरा एम.ए का छात्र।
‘‘कहो सुभाष, कैसे हो?’’
‘ठीक हूँ , गुरुजी।’’ युवक ने गुरुजी के पाँव छुए।
‘‘एडमिशन ले लिया?’’
‘‘जी।’’
‘‘किस विषय में?’’
‘‘इतिहास में।’’
‘‘क्यों भाई, हिंदी में क्यों नहीं लिया। बी.ए. में तुम्हारे मार्क्स तो फर्स्ट क्लास से ऊपर थे?’’
‘‘ हाँ, थे तो। पर इतिहास में मेरी रुचि है...।’’ छात्र ने संकोच से कहा।
‘‘अरे, मुझे पता है इतिहास में तुम्हारी रुचि का कारण। हीं....हीं....हीं...हीं...और भाई, हिंदी विभाग में भी इस साल एक से एक माल....हीं....हीं...हीं।’’
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