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लघुकथाएँ - संचयन - सुदर्शन वशिष्ठ
पिता का घर

दादा का घर पिता का घर था। उस घर की छत में पूरे के पूरे बाँस पड़े थे। अनड़ बाँसों में भोजपत्र बिछे थे, जो पुरखों ने न जाने किन पहाड़ों से लाए थे। दीवारों पर टँगे थे सीता–राम,पार्वती–शिव, कृष्ण–बलभद्र के चित्र जिनके पीछे हर साल चिड़ियाँ अपना घोसला बनातीं।
घर के गरेबी लीपे कमरों में दादा,पिता,चाचा,दादी,माँ चाचियाँ और बहुएँ सभी अपने–अपने घोंसलें बनाते। हर घोंसला एक–दूसरे से गुँथा रहता था।
दादा का घर कच्चा होते हुए बहुत पक्का था।
पिता ने भी बनाया अपना घर जिसकी दीवारें थी, सीमेंटी, जहाँ कील नहीं गड़ती थी। नहीं बना सकती थी कोई चिडिया अपना घर। ठंडे फर्श पर दादा ने कभी पाँव नहीं रखा। कोई मेहमान रिश्तेदार नहीं आया।
पिता का घर पक्का होते हुए बहुत कच्चा था।
दादा का घर सबका घर था। पिता का घर मेरा घर नहीं है। मुझे अपना घर बसाना होगा जो न जाने कैसा होगा किसका होगा।

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