एक उम्र बीत जाने के बाद बूढ़ों से एक अलग प्रकार की गंध आने लगती है। यह गंध बूढ़ों के आसपास मोह ममता की भाँति फैली रहती है। कोई बूढ़ा इस गंध से बच नहीं सकता। यद्यपि इस गंध से बेटे–बहुएँ बचना चाहती हैं। जहाँ बूढ़ा बैठता है, उस जगह के आसपास से संतानों को चिढ़ होने लगती है।
ऐसी गंध जब दादाजी से आने लगी तो वे सरकारी मकान के स्टोर वाले कोने में दुबके से रहने लगे। जब सभी ऑफिस या स्कूल चले जाते, वे धीमे–धीमे सहमे–सहमे निकलते और पालतू तोते की तरह आहिस्ता–आहिस्ता फर्श पा पाँव रखते चलते।
जब मैंने होश सँभालने के बाद दादाजी को जाना पहचाना उनमें यह गंध समा चुकी थी। उनके कपड़ों,उनके शरीर से यह गंध बराबर आने लगी थी। पिताजी उन्हें गाँव से शहर ले आए थे।
जब घर में खास मेहमान आते, दादा स्टोर वाले कमरे में छिपे रहते। कभी हम बच्चे उन्हें बाहर लाने की कोशिश भी करते, तब भी वे नहीं आते। न जाने क्या संकोच या डर उनके मन में घर कर गया था।
एक बार स्वीटी की बर्थ–डे पार्टी में हम उन्हें जबरदस्ती बाहर ले आए। उनके बाहर आते ही बच्चे सहम गए। उनका नाच बंद हो गया। बड़े तो जैसे फ़्रीज हो गए।
वे सोफे पर बैठे थे कि कुछ बच्चे चिल्लाए, ‘‘फाउल स्मैल! ये स्मैल कहाँ से! सभी ने नाक–सिकोड़ ली।
दादा जी ने गंध समेटनी चाही। गंध का प्रवाह भी रोक पाया है कोई।
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